झारखंड के आदिवासियों में शादियों से जुड़ी कुछ दिलचस्प परम्पराएं हैं। वहां समाज में कई तरह की शादियां प्रचलित हैं और ढुकू प्रथा भी इनमें से एक है।
आदिवासी समाज आमतौर पर महिला प्रधान माना जाता है, जहां हर एक फैसले में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित कराई जाती है।
हालांकि, संपत्ति पर कब्जे के लोभ में डायन प्रताड़ना और डायन बताकर महिलाओं की हत्या के मामलों में झारखंड की आलोचना भी होती है।
यह मूलतः आदिवासी समाज से जुड़ा मसला है। इसके बावजूद शादी-ब्याह और जीवनसाथी चुनने की आजादी के मामले में यहां के आदिवासी समाज की प्रथा और परम्पराएं महिलाओं को विशेष हक देती हैं। हुकू प्रथा भी इसी आजादी की प्रतीक है।
झारखंड के गांवों में अखड़ा की परम्परा है। यहां आयोजित होने वाले धुमकुड़िया समारोह के दौरान युवाओं और युवतियों के लिए अलग-अलग रहने का इंतजाम कराया जाता है। शाम होने पर वे साथसाथ नाचते-गाते हैं।
इस दौरान अगर किसी युवती या युवक को कोई पसंद आ गया, तो वे उसे प्रेम प्रस्ताव देते हैं। फिर यह बात वे अपनी मां-पिताजी को बताते हैं।
घर वाले अगर इस शादी के लिए राजी हो गए, तब तो उनकी विधिवत शादी करा दी जाती है लेकिन कुछ मामलों में घर वाले इसके लिए राजी नहीं होते।
तब वह जोड़ा लिव-इन में पति-पत्नी की तरह रहने लगता है। इन्हें ही ढुकू कहा जाता है। कई मामलों में ऐसे जोड़े गांव छोड़कर चले जाते हैं और बाल-बच्चे होने पर वापस गांव लौटते हैं। फिर वे अपनी शादी की सामाजिक मान्यता के लिए गांव के पंचों के पास जाता है।
बेटे-बेटियों और मां-बाप की शादी एक साथ
पंच उन पर जुर्माना लगाते हैं जिसकी अदायगी के बाद उनकी विधिवत शादी करा दी जाती है ताकि उन्हें उनकी पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिल सके और वे अपनी संतानों की भी विधिवत शादी करा सकें इसलिए कुछ मौकों पर आप एक ही मंडप में या कुछ घंटे के अंतराल पर एक ही दिन मां-बाप और उनके बेटे-बेटियों की भी शादी होते देखते हैं।
मामूली जुर्माने का रिवाज
हुकू जोड़ों के लिए आमतौर पर मामूली जुर्माने का रिवाज है। कई बार यह 100-200 रुपए या एक खस्सी (बकरा) से लेकर गांव भर के लोगों के लिए भोज तक के रूप में लगाया जाता है। जुर्माना लगाते समय पंच उस जोड़े की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हैं।
लिव-इन रिलेशनशिप का रिवाज
राजस्थान और गुजरात की गरासिया जनजाति भी न केवल युवाओं को अपना साथी चुनने की अनुमति देती है, बल्कि लिव-इन रिलेशनशिप में भी रहने देती है – इस प्रथा को दापा कहा जाता है।
एक वार्षिक उत्सव, सियावा-का-गौर मेला‘ का आयोजन किया जाता है, जहां युवा लड़के और लड़कियां आते हैं और अपने साथी को चुनते हैं जिनके साथ वे रहना चाहते हैं।
गरासिया जनजाति के सदस्यों के लिए एक साथी के साथ रहने के लिए शादी अनिवार्य नहीं है बल्कि प्यार जरूरी है। अगर कोई गरासिया महिला किसी और के प्यार में पड़ जाती है और अपने साथी को छोड़ना चाहती है, तो उसे ऐसा करने की अनुमति है
लेकिन उस मामले में उसके नए प्रेमी को उसके पूर्व पति को कुछ राशि का भुगतान करना पड़ता है। इस जनजाति के बारे में एक और दिलचस्प बात है कि वे 50 या 60 साल की उम्र के बाद भी शादी कर सकते हैं।
पंजाब केसरी से साभार
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