आधुनिक युग में जहां हरेक व्यक्ति की जेब में टंगा पेन देख कर खुशी होती है वहीं इसका प्रयोग करते समय कभी-कभी हैरानी भी होती है कि कैसे एक छोटी-सी छड़ी वक्त के पृष्ठ पर निरंतर चलती आ रही है।
शुरूआत हुई मोर, बत्तख और हंस के पंखों की कलम से
पुराने समय में पेन नहीं होते थे तब मनुष्य मोर, बत्तख और हंस के पंखों की कलम बनाकर लिखता था। ये पंख इन पक्षियों की पूंछ से लिए जाते थे। फिर लकड़ी की कलम का प्रयोग शुरू हुआ।
कई इलाकों में जानवरों की बारीक हड्डियों को घिसाकर कलम का रूप प्रदान किया जाता था। अब इन पुरातन कलमों के बारे में सोच कर हैरानी होती है परंतु उस समय ये भी काफी सफल थे। पुरानी पांडुलिपियां इन्हीं कलमों से लिखी गई हैं जो आज भी देखने को मिलती हैं।
कहाँ आया ‘पेन’ शब्द
पेन शब्द लैटिन भाषा के ‘पेन सीलस’ शब्द से बना है जिसका अर्थ ‘पूंछ वाला’ होता है। पुरातन डंकों, कलमों तथा पंखों आदि में समय-समय पर सुधार होते गए। उनके रूप आकर्षक बनाए गए।
इन कलमों के अगले सिरे पर निबनुमा धातु की पत्तियां लगाई गई। सन् 1845 तक ऐसे ही पैन इस्तेमाल किए जाते रहे थे।
इनके प्रयोग करने में एक ही मुश्किल आती थी कि कागज पर हरेक शब्द लिखते समय स्याही की दवात में इन्हें डुबोना पड़ता था और ऐसा बार-बार करना पड़ता।
दूसरे इन्हें सफर में ले जाना आसान नहीं था। अगर स्याही खत्म हो जाती, सूख जाती या बिखर जाती तो लिखना असंभव हो जाता था। स्याही वाले पेन की खोज विज्ञान हर काल में विद्वान रहा है।
सन् 1846 ईस्वी में एक फ्रांसीसी ने ‘स्याही वाले पेन’ की खोज की। उसने जिस पेन का निर्माण किया जिसके अगले भाग पर निब फिट थी और पिछले हिस्से में स्याही भरी जा सकती थी।
यह स्याही पेन की निब में से होकर कागज पर लिखती थी। इसका नाम ‘फाऊंटेन पेन’ रखा गया। लगभग 40 साल खोजी इस पेन में तबदीली करते रहे। इसके सुख ने लोगों को राहत दी पर इसमें एक ही कमी रही कि इसमें भी बार-बार स्याही भरनी पड़ती थी।
फिर कई बार स्याही पेन में से रिस जाती, खुश्क हो जाती या उछल जाती थी इसलिए इसके प्रयोग के समय मुश्किलों का सामना करना पड़ता। कई बार तो कपड़े भी खराब हो जाते। इन मुश्किलों का हल करना समय की मांग थी और विज्ञान की प्राप्ति।
फाऊंटेन पेन में सुधार
सन् 1884 में लुईस वाटरमैन ने फाऊंटेन पेन में हैरानीजनक सुधार कर दिखाया। उसने फाऊंटेन पेन में एक ड्रॉपर फिट कर दिया जिसे दबा कर छोड़ने से पेन में आसानी से स्याही भर जाती थी।
इस सुधरे पेन में ड्रॉपर लगाने से इसकी मांग इतनी बढ़ गई कि सन् 1942 तक ये बाजारों में छाए रहे। ‘वाटरमैन’ ने इस दौरान निबों में परिवर्तन किए। पहले ये निब लोहे की होती थीं, वाटरमैन के बाद में रेडियम, स्टील आदि धातु की अन्य निबें तैयार की।
यूं तैयार हुआ बॉल पेन
फाऊंटन पेन हर लिहाज से सफल रहा पर उस समय हैरानी हुई जब हवाई जहाज के पायलटों ने शिकायतें की कि इन पेनों में से हवा के कम दबाव के कारण स्याही बाहर निकल आती है। इस समस्या का हल ‘लाजलो बीरो’ ने ढूंढ निकाला।
उसने 1938 में ऐसा पेन बनाया जो गाढ़ी स्याही से भरा रहता था और हवा के कम-ज्यादा दबाव के कारण स्याही बाहर नहीं आती थी। इस पेन में आम निब के स्थान पर ‘बॉल बेयरिंग का इस्तेमाल किया जाता था। इसे ही आज बॉल पेन के रूप में जानते हैं।
बॉल पेन के लिए बनी बढ़िया स्याही
हंगरी के ‘लोडी सलाऊ बैरू’ ने बॉल पेन के लिए ऐसी स्याही तैयार की जो सूखती नहीं थी। एक बार वह यूगोस्लाविया के होटल में बैठा कुछ लिख रहा था कि अर्जेंटीना के उच्च अधिकारी ‘हैनरी मार्टिन’ की नजर उसके पेन पर पड़ी।
उसे वह बहुत पसंद आया। उसने उसे अपने देश आने और रहने की पेशकश रखी। अर्जेंटीना में उसने बॉल पेन में और सुधार किए।
सन् 1942 में सुंदर लिखावट तथा इस्तेमाल में आसानी के कारण इसकी मांग इतनी बढ़ गई कि संसार की प्रसिद्ध कम्पनी ‘पारकर’ वालों ने ‘बैरू’ के साथ संपर्क किया तथा उसने अपने सारे अधिकार पारकर’ को बेच दिए।
फिर ये बॉल पेन घर-घर की शान होने लगे। इस प्रकार आज हम जिन पेनों का इस्तेमाल करते हैं उनकी खोज में अनेक लोगों का योगदान रहा है।
पंजाब केसरी से साभार