मा.मोहन लाल, पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब
वर्षों से यह प्रश्न भारत के लोगों को उद्वेलित करता चला आ रहा है कि ‘विश्वगुरु‘ कहलाने वाला भारत देश 1250 साल तक गुलाम क्यों रहा? यह ‘सोने की चिड़िया‘ कहा जाने वाला भारत वर्ष इतने लम्बे समय तक गुलाम कैसे रहा?
सोते समय कई मर्तबा मेरे स्वयं के मन में यह विचार हिचकोले खाता रहता है कि इतने उच्च आदर्शों वाला यह देश इतनी शताब्दियों तक गुलाम क्यों बना रहा? इतनी लम्बी इसकी विरासत, इतनी सुशील इस देश की संस्कृति, इतनी श्रेष्ठ इसकी सभ्यता और फिर भी इतनी दीर्धावस्था तक यह देश गुलाम क्यों रहा? आश्चर्य है कि दुनिया के किसी मुल्क ने इतनी लम्बी गुलामी नहीं सही।
राम-कृष्ण का देश, नानक-गोबिंद सिंह का देश और फिर भी गुलाम? गुलाम ही नहीं, लम्बे समय तक गुलाम। जानते हो क्यों? क्योंकि जब भी यह देश संकट में आया कुछ काली भेड़ों ने इसे गुलाम बना दिया।
आज विश्व कोरोना वायरस से सहमा हुआ है। इस भयंकर महामारी से भारत त्रस्त है। नित नए केस कोरोना वायरस के डिटैक्ट हो रहे हैं, लोग मर रहे हैं और इधर ध्यान तो दो कि कुछ लोग ‘हैंड सैनेटाइजर‘ नकली बनाने को दौड़ पड़े। पैसे की खातिर हाथ धोने वाले लोशन तक को नकली बनाने लगे। निकम्मे और तुच्छ से लगने वाले ‘मास्कों‘ की पूर्ति को बाजारों से गायब कर दिया। और तो और प्रयोग किए गए मास्कों को झाड़-पोंछ कर पुन: बाजारों में बेचा जाने लगा। टके के मुंह ढांपने वाले मास्क को बीस रुपए में बेचा जाने लगा।
अच्छा होता यदि नये मास्क सरकार लोगों को इस संकट की घड़ी में मुफ्त बांटती, पर सरकारें चलो ऐसा न कर सकी तो क्या मास्कों की बनावटी कमी पैदा कर दी जाए? कोरोना वायरस की इस भयंकरता में हम प्रयोग किए जा चुके मास्कों को पुनः प्रयोग करने के लिए बीमारों को बाध्य करें? नकली हैंड सैनेटाइजर बनाने की होड़ में लग जाएं? संबंधित दवाइयों को छुपा लें व महंगे दामों पर बेचने लगें? यह तो इंसानी धर्म नहीं। यह तो आदमी-आदमी के बीच की एकता का प्रमाण नहीं। ऐसा करना तो इंसानियत के विरुद्ध है। संकट की इस भयानक बेला में इस प्रकार के काम तो देश के साथ गद्दारी ही कहे जाएंगे।
क्या ऐसे ही लोगों ने देश को गुलाम नहीं बनाया? जब छठी शताब्दी में मोहम्मद-बिन-कासिम ने सिंध पर आक्रमण किया तो ऐसी ही वृत्ति के लोगों ने राजा दाहिर को उसके हालात पर छोड़ दिया होगा? अनिवार्य वस्तुओं को छुपा लिया होगा? उसे और उसकी युवा बेटियों की लुटती अस्मत पर मुस्कुराते होंगे।
प्लेग-संक्रमण और बंगाल में आए दुर्भिक्ष में जरूरी चीजों को पैसे के लालची ऐसे लोगों ने ही गायब कर दिया होगा और लोग मरते गए होंगे? अहमद शाह अब्दाली ने ऐसे ही तो भारत को लूटा नहीं होगा? उसे बुलाया तो किसी भारतवासी ने ही होगा? तैमूर लंग को भारत का रास्ता हमने ही तो बताया होगा।
महमूद गजनवी, मोहम्मद गौरी को भारत आने का निमंत्रण किसी और ने तो भेजा नहीं होगा? पृथ्वी राज चौहान को गौरी ने नहीं जयचंद ने ही मारा होगा? बाबर को भारत पर आक्रमण करने का बुलावा किसी अपने ने ही दिया होगा? महाराणा प्रताप के सामने कोई उसका अपना ही भाई शक्ति सिंह बन गया होगा?
अकबर की दक्षिण विजय में कोई राजा जयसिंह ही होगा? अंग्रेजों ने कई ‘मीर-जाफर‘ पाल रखे होंगे? गुरु गोबिंद सिंह के छोटे साहिबजादों को किसी अपने ने ही सरहिंद की दीवारों में चिनवाया होगा? मुझे तो साढ़े बारह सौ सालों की भारत गुलामी में अपने ही गद्दार दिखाए दिए हैं। भामाशाह तो सिर्फ एक ही मिला है।
हमें गुलाम किसी और ने नहीं बनाया, हमने स्वयं गुलामी को निमंत्रण दिया। पूछो क्यों? क्योंकि हमें पैसा चाहिए, हमें सत्ता चाहिए, हमें पद चाहिए, हमें अपनी अलग-अलग रियासत चाहिए। हमने कभी सोचा ही नहीं कि यह देश अपने पुरखों की हमें देन है। हमने कभी ध्यान ही नहीं किया कि समाज की पीड़ा हमारी अपनी पीड़ा है। हमें तो पैसा चाहिए।
एकदम स्वार्थी हैं हम। अपने एक पैसे को बचाने के लिए देश का करोड़ों रुपयों का नुक्सान होता है तो हो जाने दो। यह तो कोई बात नहीं हुई कि हमारे देश के प्रधानमंत्री कोरोना जैसी भयंकर बीमारी का हल खोजने के लिए सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों से विचार-विमर्श कर रहे हों और आप नकली ‘हैंड सैनेटाइजर‘ बनाने में जोर लगाने लग पड़ें क्योंकि इससे आपको पैसा मिलता है।
यह तो ‘मानव धर्म‘ नहीं हुआ कि एक तरफ सरकारें स्कूल-कालेज, रेल यातायात, हवाई सफर और सरकारी अदारे बंद कर कोरोना वायरस से जंग लड़ रही हैं और एक आप लोग हैं कि एक टके के मास्क को बीस रुपए में बेचने लग पड़े। सारे मास्क ही दबा लिए।
हमसे तो अमरीका अच्छा। चौंकिए मत। वहां के पैंतालीस नौजवान स्वयं साइंस लैबोरेटरियों में गए, वैज्ञानिकों से कहा, ‘कोरोना वायरस के कीटाणुओं को हममें इंजैक्ट करो। हम पर प्रयोग करो और पता लगाओ कि इस कोरोना वायरस से इंसानी जिंदगियों को कैसे बचाया जा सकता है। है न इंसानी प्यार? है न देशभक्ति?
हम सिर्फ देशभक्ति का ढिंढोरा पीटते हैं। देशभक्ति का मुखौटा ओढ़े बैठे हैं। भक्त सिंह जिंदाबाद, शहीदे आजम भगत सिंह अमर रहे, अमर रहे जैसे नारे जरूर लगाते हैं परन्तु अंदरखाते प्रभु से यही प्रार्थना करते हैं कि कहीं भगत सिंह हमारे घर में पैदा न हो?
अजीब देशभक्ति है हमारी? हमारा तो सब कुछ पैसा ही हुआ न? सामूहिक सोच, सामूहिक हित, देश भक्ति सिर्फ नारों में ही हम दिखाते हैं। मुझे तब घृणा हुई कि देश कोरोना जैसी महामारी की गिरफ्त में है और आप नकली दवाइयां, नकली सैनेटाइजर, नकली और गंदे मास्क महंगे दामों पर बेचने की होड़ में लगे हो? भयानक संकट है देश पर और आप लोगों को सिर्फ अपने लाभ की चिंता है?
सोचो यदि देश ही नहीं रहेगा तो तुम्हारा धन किस काम का? पैसा-पैसा-पैसा यह तो गुलाम मानसिकता है। पहले इस देश ने कम गुलामी देखी है? जला दो, फूंक दो इस गुलाम पैसे की मानसिकता को। याद रखो विश्वविजेता सिकंदर महान भी जब इस दुनिया से गया था तो उसके दोनों हाथ खाली थे।
पहले देश और समाज, फिर पैसा और पद की सोचो। देश के सामने पैसा ‘बिग जीरो‘ है।
पंजाब केसरी से साभार