जमीन, भूमि, धरा, धरणी, अचला, पृथ्वी, वसुधा, वसुंधरा, सहित कितने ही सुंदर नामों वाली प्यारी धरती मनुष्य और जीव-जंतुओं की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
इसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते, लेकिन विकास की जाने कौन- सी दौड़ और हवस है, जिसके कारण मनुष्य धरती के वातावरण को लगातार नुक्सान पहुंचा रहा है।
आज धरती के वातावरण और जन-जीवन को बचाने के लिए हमारे सामने अनेक चुनौतियां पैदा हो गई हैं। सूरज की पराबैंगनी किरणों से धरती की रक्षा करने वाली ओजोन परत को खतरा पैदा हो गया है।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है। बर्फ के ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। पानी के स्त्रोत दूषित होते जा रहे हैं धरती पर अपशिष्ट कूड़े के अंबार लगे हुए हैं।
हर रोज पैदा होने वाले कचरे की तुलना में कचरे के प्रबंधन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। कचरा प्रबंधन में भ्रष्टाचार जले पर नमक के समान है।
सुनामी, सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के लिए भी मनुष्य की उदासीनता को जिम्मेदार बताया जा रहा है, तो हर एक का दायित्व है कि धरती, उसकी वन संपदा, जल संपदा, पहाड़ व प्रकृति को बचाने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास किए जाएं।
मानव सहित पृथ्वी लाखों प्रजातियों का घर है। पृथ्वी सौरमंडल का एकमात्र ग्रह है जहां पर जीवन संभव है। सात महाद्वीपों में बांटी गई पृथ्वी पर सबसे उत्तम बिंदु माउंट एवरैस्ट है, जिसकी ऊंचाई 8848 मीटर है।
दूसरी ओर सबसे निम्नतम बिंदु प्रशांत महासागर में स्थित मारियाना खाई है, जिसकी समुद्र के स्तर से गहराई 10911 मीटर है। पृथ्वी आकार में पांचवां सबसे बड़ा ग्रह है और सूर्य की दूरी के क्रम में तीसरा ग्रह है। आकार एवं बनावट की दृष्टि से पृथ्वी शुक्र के समान है।
यह अपने अक्ष पर पश्चिम से पूरब 1610 किलोमीटर प्रति घंटा की चाल से 23 घंटे 56 मिनट और 4 सेकेंड में एक चक्कर पूरा करती है। पृथ्वी की इस गति को घूर्णन या दैनिक गति कहते हैं। इस गति से ही दिन व रात होते हैं।
पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट 40 सेकंड का समय लगता है। सूर्य के चतुर्दिक पृथ्वी की इस परिक्रमा को पृथ्वी की वार्षिक गति अथवा परिक्रमण कहते हैं। पृथ्वी को सूर्य के परिक्रमा पूरी करने में लगे समय को सौर वर्ष कहा जाता है।
प्रत्येक सौर वर्ष, कैलेंडर वर्ष, से लगभग 6 घंटा बढ़ जाता है। जिसे हर चौथे वर्ष में लीप वर्ष बनाकर समायोजित किया जाता है। लीप वर्ष 366 दिन का होता है।
जिसके कारण फरवरी माह में 28 दिन के स्थान पर 29 दिन होते हैं। जल की उपस्थिति तथा अंतरिक्ष से नीला दिखाई देने के कारण पृथ्वी को नीला ग्रह भी कहा जाता है।
पृथ्वी की उत्पत्ति 4.6 अरब वर्ष पूर्व हुई थी। जिसका 70.8% भाग जलीय और 29.2 % भाग स्थलीय है। उत्पत्ति के एक अरब वर्ष बाद यहां जीवन का विकास शुरू हो गया था। तब से पृथ्वी के जैवमंडल ने यहां के वायुमंडल में काफी परिवर्तन किया है।
समय बीतने के साथ ओजोन परत बनी जिसने पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के साथ मिलकर पृथ्वी पर आने वाले हानिकारक विकिरण को रोककर इसको रहने योग्य बनाया। लेकिन बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण व शहरीकरण में तेजी से वृद्धि ने 20वीं सदी में पर्यावरण को क्षति की प्रक्रिया को तेज कर दिया था।
प्रदूषण के कारण पृथ्वी अपना प्राकृतिक रुप खोती जा रही है। पृथ्वी के सौंदर्य को जगह – जगह पर फैले कचरे के अम्बारों और ठोस अपशिष्ट पदार्थों ने छीन लिया है।
आधुनिक युग में सुविधाओं के विस्तार ने भी स्थिति को विकराल बना दिया है। मनुष्यों की सुविधा के लिए बनाई गई पॉलीथिन सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है। पॉलिथीन जमीन और जल दोनों के लिए घातक सिद्ध हुआ है।
इनको जलाने से निकलने वाला धुआं ओजोन परत को भी नुक्सान पहुंचाता है जो ग्लोबल वार्मिंग का बड़ा कारण है। देश में प्रतिवर्ष लाखों पशु -पक्षी पॉलीथिन के कचरे से मर रहे हैं। इससे लोगों में कई प्रकार की बीमारियां फैल रही हैं।
इससे जल स्त्रोत दूषित हो रहे हैं। पॉलीथिन कचरा जलाने से कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड एवं कार्बन डाइऑक्सीन्स जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं।
इनसे सांस, त्वचा आदि की बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती है। भारत की ही बात करें तो यहां प्रतिवर्ष लगभग 500 मीट्रिक टन पॉलीथिन का निर्माण होता है, लेकिन इसके 1% से भी कम का पुनर्चक्रण हो पाता है।
अनुमान है कि भोजन के धोखे में इन्हें खा लेने के कारण प्रतिवर्ष एक लाख समुद्री जीवों की मौत होती है। विश्व में प्रतिवर्ष प्लास्टिक और 10 करोड़ टन के लगभग है और इसमें प्रतिवर्ष 4% की वृद्धि हो रही है।
भारत में औसतन प्रत्येक भारतीय के पास प्रतिवर्ष आधा किलो प्लास्टिक अपशिष्ट पदार्थ इकट्ठा हो जाता है। इसका अधिकांश भाग कूड़े के ढेर और इधर-उधर बिखर कर पर्यावरण प्रदूषण फैलाता है।
पंजाब केसरी से साभार….।