महर्षि वाल्मीकि को प्राचीन वैदिक काल के महान ऋषियों की श्रेणी में प्रमुख स्थान प्राप्त है। पुराणों के अनुसार, उन्होंने कठोर तपस्या कर महर्षि का पद प्राप्त किया था। परमपिता ब्रह्मा के कहने पर उन्होंने भगवान श्रीराम के जीवन पर आधारित “रामायण” नामक महाकाव्य लिखा। इन्हें “आदिकवि” भी कहा गया है।
इनके द्वारा रचित आदिकाव्य “रामायण” संसार का सर्वप्रथम काव्य माना गया है। महर्षि वाल्मीकि की जंयती पर आइए जानते है उनके जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातें।
आदि काव्य रामायण के रचयिता और संस्कृत भाषा के परम ज्ञानी महर्षि वाल्मीकि की जंयती को देश भर में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। महर्षि वाल्मीकि जयंती अश्विन मास की पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है, इस बार वाल्मीकि की जयंती 28 अक्तूबर को है।
महर्षि वाल्मीकि के द्वारा संस्कृत भाषा लिखी गई रामायण को सबसे प्राचीन माना जाता है। रामायण महाकाव्य लगभग 21 भाषाओं में उपलब्ध है। संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना करने के कारण इन्हें “आदिकवि” भी कहा जाता है। महर्षि वाल्मीकि की लिखी गई रामायण पूरे विश्व में विख्यात है।
महर्षि वाल्मीकि का जीवन चरित्र
एक पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि बनने से पहले वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे तथा परिवार के पालन हेतु वह लोगों को लूटा करते थे।
एक बार उन्हें “निर्जन वन” में नारद मुनि मिले, तो रत्नाकर ने उन्हें लूटने का प्रयास किया। तब नारद जी ने रत्नाकर से पूछा कि- तुम यह कार्य क्यों करते हो, इस पर रत्नाकर ने उत्तर दिया और बोले कि अपने परिवार को पालने के लिए।
इस पर नारद जी ने प्रश्न किया कि तुम जो भी कार्य करते हो और जिस परिवार को पालन के लिए तुम इतने अपराध करते हो, क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार होंगे।
इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए रत्नाकर, नारद को पेड़ से बांधकर अपने घर गए। वहां जाकर वह यह जानकर हैरान रह गए कि परिवार का कोई भी व्यक्ति उसके इस पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं है। लौटकर उन्होंने नारद के चरण पकड़ लिए।
तब नारद मुनि ने कहा कि- हे रत्नाकर, यदि तुम्हारे परिवार वाले इस कार्य में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिए यह पाप करते हो। इस तरह नारद जी ने इन्हें सत्य के ज्ञान से परिचित करवाया।
नारद मुनि से मिलकर और अपने परिवार वालों की बातें सुनकर रत्नाकर की आंखें खुल गईं थीं उन्होंने अन्याय और पाप की दुनिया तो छोड़ दी, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि आगे क्या करना चाहिए।
ऐसे में उन्होंने नारद से ही पूछा कि वह क्या करे। तब नारद ने उसे ‘राम’ नाम का जाप करने की सलाह दी। परंतु वह ‘राम’ नाम का उच्चारण नहीं कर पाते थे।
तब नारद जी ने विचार करके उनसे मरा-मरा जपने के लिए कहा और मरा रटते-रटते यही ‘राम’ हो गया और निरंतर जप करते-करते हुए वह ऋषि वाल्मीकि बन गए।
कहते हैं कि रत्नाकर ने कई वर्षों तक कठोर तपस्या की, जिस वजह से उसके शरीर पर चीटियों ने बाम्भी बना दी। इस वजह से उनका नाम वाल्मीकि पड़ा।
वाल्मीकि को कैसे मिली रामायण लिखने की प्रेरणा
रामायण के अनुसार, एक बार महर्षि वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर गए। वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के एक जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक शिकारी ने प्रेम-मग्न क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी को मार दिया।
इस पर मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुनकर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥
इसका अर्थ यह है कि, “हे दुष्ट, तुमने प्रेम मे मग्न क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी शांति न मिले और तुझे भी वियोग झेलना पड़े”। जब महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम पहुंचे तब भी उनका ध्यान उस श्लोक की ओर ही था।
तभी महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में भगवान ब्रह्मा आए और उनसे कहा कि- आपके मुख से निकला यह छंदोबद्ध वाक्य (गाया जाने वाला) श्लोक रूप ही होगा। मेरी प्रेरणा से ही आपके मुख से ऐसी वाणी निकली है। अत: आप श्लोक रूप में ही श्रीराम के संपूर्ण चरित्र का वर्णन करें।
इस प्रकार ब्रह्माजी के कहने पर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण महाकाव्य की रचना की और “आदिकवि वाल्मीकि” के नाम से अमर हो गये। रामायण में भगवान वाल्मीकि द्वारा 24,000 श्लोक लिखे गए हैं।
अपने महाकाव्य “रामायण” में उन्होंने अनेक घटनाओं के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड ज्ञाता थे।