सत्यार्थप्रकाश (Satyarth Prakash, सत्यार्थ प्रकाश) ग्रन्थ की रचना महान चिन्तक, समाज सुधारक एवं विद्वान महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 1875 ई में की थी। अब तक इसके 20 से अधिक संस्करण अलग-अलग भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।
उस दौर में हिन्दू शास्त्रों की गलत व्याख्या करके हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने चलन बढ़ रहा था। साथ ही शास्त्रों का गलत अर्थ निकाल कर हिन्दू धर्म को बदनाम करने का षड्यन्त्र चल रहा था।
इसी बात को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इसका नाम सत्यार्थप्रकाश (सत्य + अर्थ + प्रकाश) अर्थात् सही अर्थ पर प्रकाश डालने वाला (ग्रन्थ) रखा। स्वयं स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार इस रचना का मुख्य प्रयोजन सत्य को सत्य और मिथ्या को मिथ्या ही प्रतिपादन करना है।
सत्यार्थ प्रकाश में चौदह समुल्लास (अध्याय) हैं। इन अध्यायों में ईश्वर, सृष्टि-उत्पत्ति, बाल-शिक्षा, अध्ययन-अध्यापन, विवाह एवं गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास-राजधर्म, बंध-मोक्ष, आचार-अनाचार, आर्यावर्तदेशीय मतमतान्तर, ईसाई मत तथा इस्लाम पर विस्तृत विवेचन और व्याख्या की गयी है।
अध्याय | विषय |
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प्रथम | ईश्वर के ओंकारादि नामों की व्याख्या |
द्वितीय | सन्तानों की शिक्षा |
तृतीय | ब्रह्मचर्य, पठनपाठन व्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम और पढ़ने-पढ़ाने की रीति |
चतुर्थ | विवाह और गृहस्थाश्रम का व्यवहार |
पञ्चम | वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम की विधि |
षष्ट | राजधर्म |
सप्तम | वेद एवं ईश्वर |
अष्टम | जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय |
नवम | विद्या, अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या |
दशम | आचार, अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य विषय |
एकादशम | आर्य्यावर्त्तीय मतमतान्तर का खण्डन मण्डन |
द्वादशम | चार्वाक, बौद्ध और जैन मत |
त्रयोदशम | ईसायत (बाइबल) |
चतुर्दशम | मुसलमानों का मत (कुरान) |
इसकी भाषा के सम्बन्ध में दयानन्द जी ने सन् 1882 में इस ग्रन्थ के दूसरे संस्करण में स्वयं यह लिखा –“जिस समय मैंने यह ग्रन्थ बनाया था, उस समय.संस्कृत भाषण करने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण मुझको इस भाषा (हिन्दी) का विशेष परिज्ञान न था। इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी। अब इसको भाषा-व्याकरण-अनुसार शुद्ध करके दूसरी बार छपवाया है।”
सत्यार्थप्रकाश के मुख्य सन्देश
इसके मुख्य संदेश पारम्परि्क हिन्दू रीति से अलग और कहीं-कही विरूद्ध भी हैं। ये इस प्रकार हैं –
- ओ३म् परमात्मा का निज नाम है। सत्य होने की वजह से ब्रह्म, सर्वत्र व्यापक होने की वजह से विष्णु, कल्याणकारी होने से शिव, सारी प्रजा के उत्पादक होने की वजह से गणपति और प्रजापति, दुष्टदमन होने से रूद्र तथा सोम, अग्नि इत्यादि उसी एक परमात्मा के नाम हैं।
- परमात्मा को कोई रंग या स्वरूप नहीं है। ईश्वर कोई अवतार, पैगम्बर या मसीहा नहीं भेजता। अपने कर्मों के कारण ही कोई मनुष्य आदरणीय बनता है। राम और श्रीकृष्ण आदरणीय महापुरुष थे, लेकिन ईश्वरावतार नहीं। परमात्मा सर्वआनन्दमय – सच्चिदानन्द हैं। दरअसल ईश्वर अनंत व् अपरिमित(unlimited) है अत वह अंत अथवा परिमित (limited) शरीर में नहीं समा सकता।
- देव का अर्थ होता है देने वाला (दान या कृपा) – अतः ऋषि, मुनि या कोई नदी जो कईयों का कल्याण करे, सूर्य, नक्षत्र आदि देव हैं। लेकिन उपासना ईश्वर की ही करनी चाहिए जो इन सभी का कर्ता है। इसी से एकमात्र ईश्वर का ही नाम महादेव है। वेद मंत्रों को भी देव कहा गया है क्योंकि उनके आत्मसात करने से कल्याण होता है।
- वर्ण व्यवस्था गुण और कर्म को लेकर होती है – जन्म से नहीं। राजा का बेटा आवश्यक नहीं कि क्षत्रिय ही हो। ये उसके बल, पराक्रम, इन्दि्रजित और कल्याणकारी गुण पर निर्भर है। इत्यादि..
- मूर्तिपूजा वेदों (और उपनिषदों) में कहीं नहीं है। मूर्ति पूजन से लोग मूर्तिआश्रित हो जाते हैं और पुरुषार्थ के लिए प्रेरित नहीं रहते। सिर्फ पुरुषार्थ से ही जीवों का कल्याण हो सकता है।
- जीव (आत्मा, पुरुष), प्रकृति और परमात्मा तीनों एक दूसरे से पृथक हैं। परमात्मा जीवों पर नियंत्रण नहीं करता – लोग अपने कार्य के लिए स्वतंत्र हैं। परिणाम अपने कार्य के अनुसार ही होगा – परमात्मा की इच्छा के अनुसार नहीं।
- मोक्ष प्राप्ति के लिए अष्टांग योग, उत्तम कर्म, पवित्रता, यज्ञ (पदार्ध यज्ञ, दान, त्याग और निष्काम कर्म) सत्य का साथ और मिथ्या को दूर छोड़ना, विद्वान पुरुषों का संग, विवेक (सत्य और असत्य का विवेचन) इत्यादि करना चाहिए।
- ईश्वर उपासना करने से अपराध क्षमा नहीं करता – कई हिन्दू (और इस्लामी तथा अन्य) मतों में ईश्वर पूजन के लिए ऐसा प्रस्तुत किया जाता है कि ईश्वर हमारे पाप क्षमा कर देता है परन्तु पुस्तक के अनुसार ईश्वर सिर्फ सत्यज्ञान दे सकता है। अपराध क्षमा करना (जैसे हरि या बिसमिल्लाह बोलकर) ईश्वर जैसे न्यायकारी शक्ति के अनुकूल नहीं है।
- वैष्णव, शैव, शाक्त, कापालिक, चक्रांकित और चार्वाक मत वेदों को नहीं समझ सकने के कारण बने हैं। ईश्वर का कोई रूप या अवतार नहीं होता क्योंकि वेदों में इनका कहीं विवरण नहीं मिलता।
- श्राद्ध, तर्पण आदि कर्म जीवित श्रद्धापात्रों (माता पिता, पितर, गुरु आदि) के लिए होता है, मृतकों के लिए नहीं।
- तीर्थ दुख ताड़ने का नाम है – किसी सागर या नदी-सरोवर में नहाने का नहीं। इसी प्रकार आत्मा के (मोक्ष पश्चात) सुगम विचरण को स्वर्ग और पुनर्जन्म के बंधन में पड़ने को नरक कहते है – ऐसी कोई दूसरी या तीसरी दुनिया नहीं है।
- इस्लाम और ईसाई धर्मों का खण्डन – कोई पैग़म्बर या मसीहा नहीं भेजा जाता है। ईश्वर को अपना सामर्थ्य जताने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वो सच्चिदानंद है। स्वर्ग, नरक, जिन्न आदि का भी खण्डन।
सत्यार्थप्रकाश का प्रभाव
स्वामी दयानन्द का मत कई (अन्ध) विश्वासों और मतों का खण्डन करना और वेदों के मत को पुनःप्रकाश में लाने का था। इसलिए कई बार उन्हें प्रचलित हिन्दू , जैन, बौद्ध, इस्लामी और ईसाई मतों की मान्यताओं का खण्डन करना पड़ा। अवतारवाद, शंकराचार्य को शिव का अवतार, राम और कृष्ण को विष्णु नामक सार्वभौम का अवतार मानने वाले कई थे। इसी प्रकार तीर्थ, बालविवाह और जन्म संबंधी जाति (वर्ण व्यवस्था का नया रूप) जैसी व्यवस्थाओं का उन्होंने सप्रमाण खण्डन किया। इससे कई सुधार हिन्दू समाज में आए। कई विश्वास इस्लामी समाज का भी बदला। कुछ इस प्रकार हैं –
- सत्यार्थप्रकाश और ऋषि दयानन्द की जीवनी स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारियों की प्रिय पुस्तक बनी। एक अंग्रेज विद्वान शेरोल ने यहाँ तक कहा कि सत्यार्थप्रकाश ब्रिटिश सरकार कि जड़ें उखाड़ने वाला ग्रंथ है। वस्तुतः सत्यार्थप्रकाश उस समय कि कालजयी कृति थी और इस कालजयी कृति में अंग्रेजों का विरोध भी था जिससे अंग्रेज सरकार को काफी नुकसान हुआ।
- हिन्दुओ के धर्मान्तरण पर रोक लगी और मुसलमानों, ईसाई आदि विधर्मियों की शुद्धि (घर वापसी ) हुई।
- श्रीकृष्ण के ऊपर लगाए हुए गंदे आरोप और लांछन दूर हुए एवं श्रीकृष्ण का यथार्थ सत्यस्वरूप प्रकाशित हुआ।
- सत्यार्थप्रकाश ने स्त्री-जाति को पैरों से उठाकर जगदम्बा के सिंहासन पर बैठा दिया।
- मूर्तिपूजा का स्वरूप बदल गया , पहले मूर्ति को ही ईश्वर मान चुके थे , अब मूर्तिपूजक भाई बंधू मूर्तिपूजा की विभिन्न मनोहारी व्याख्याएं करने का असफल प्रयास करते हैं।
- विनायक दामोदर सावरकर के शब्दों में, “सत्यार्थप्रकाश ने हिन्दू जाति कि ठंडी रगों में उष्ण रक्त का संचार किया। “
- सत्यार्थप्रकाश से हिन्दी भाषा का महत्व बढ़ा।
- अकेले सत्यार्थप्रकाश ने अनेकों क्रन्तिकारी और समाज सुधारक पैदा कर दिए।
- सत्यार्थप्रकाश ने वेदों का महत्त्व बढ़ा दिया, वेद की प्रतिष्ठा को हिमालय सदृश चोटी पर स्थापित कर दिया।
- सत्यार्थप्रकाश का प्रभाव विश्वव्यापी हुआ , बाइबिल , कुरान , पुराण , जैन आदि सभी ग्रंथो की बातें बदल गयी , व्याख्याएं बदल गयी। सत्यार्थप्रकाश ने धर्म के क्षेत्र में मानो सम्पूर्ण पृथ्वी पर हलचल मचा दी हो।
- फरवरी 1931 में कलकत्ता से छपने वाले एपिफेनी वीकली में स्वर्ग और नरक की अवधारणी बदली। साप्ताहिक पत्र लिखता है – “What are hell and heaven? ..Hell and heaven are spiritual states; heaven is enjoyment of the presence of God, and Hell Banishment from it”. इस पर आर्य विचारधारा (सत्यार्थ प्रकाश जिसकी सबसे प्रमुख पुस्तक है) का प्रभाव दिखता है।
- कुरान के भाष्य ‘फ़तह उल हमीद’ (प्रशंसा से जीत) ने मुसलमानों के कब्र, पीर या दरगाह निआज़ी को ग़लत बताया। इसी पर मौलाना हाली ने मुसलमानों की ग़ैरमुसलमानों की मूर्ति पूजा पर ऐतराज जताते हुए कहा कि मुसलमानों को नबी को खुदा मानना और मज़ारों पर जाना भी उचित नहीं है।
- पुराणों, साखियों, भागवत और हदीसों की मान्यता घट गई है। उदाहरणार्थ, जबलपुर में सन् १९१५ में आर्य समाजियों के साथ शास्त्रार्थ में मौलाना सनाउल्ला ने हदीसों से पल्ला झाड़ लिया।
हिन्दी साहित्य में सत्यार्थ प्रकाश
हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने अपने ग्रंथों में सत्यार्थ प्रकाश को हिंदी के उन प्रारंभिक ग्रंथों में माना है, जिनके गद्य की शैली को बाद में सभी ने परम्परा के रूप में ग्रहण किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन से पहले हिंदी गद्य की भाषा ब्रजभाषा और अवधी से बहुत अधिक प्रभावित थी।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में माना है कि 1868 से 1893 का कालखंड हिंदी गद्य के विकास का समय था।
डॉ. चंद्रभानु सीताराम सोनवणे ने हिंदी गद्य साहित्य में लिखा है कि सत्यार्थ प्रकाश आधुनिक हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है। उनके अनुसार हिन्दी को नई चाल में ढालने में स्वामी दयानन्द सरस्वती का स्थान भारतेंदु हरिश्चंद्र से कम नहीं है।
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