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“केदारनाथ धाम” परिपूर्ण है अलौकिक सौंदर्य से

हिमालयी राज्य उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित केदारनाथ धाम विश्व की आस्था एवं आध्यात्मिक चेतना का पर्याय है, जहां के कण-कण में भगवान शंकर की उपस्थिति का आभास होता है।

यह स्थान धार्मिक महत्व के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए भी जाना जाता है। मन्दिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है 1.गर्भ गृह  2.मध्यभाग  2. सभा मण्डप।

गर्भ गृह के मध्य में भगवान श्री केदारेश्वर जी का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थित है जिसके अग्र भाग पर गणेश जी की आकृति और साथ ही माँ पार्वती का श्री यंत्र विद्यमान है।

ज्योतिर्लिंग पर प्राकृतिक यगयोपवित और ज्योतिर्लिंग के पृष्ठ भाग पर प्राकृतिक स्फटिक माला को आसानी से देखा जा सकता है। श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग में नव लिंगाकार विग्रह विधमान है इस कारण इस ज्योतिर्लिंग को नव लिंग केदार भी कहा जाता है

आदि शंकराचार्य ने करवाया था जीर्णोधार

सर्वप्रथम आदि शंकराचार्य ने इस मंदिर का जीर्णोधार करवाया था। इसी रुद्र रूप की परिकल्पना के कारण इस सम्पूर्ण क्षेत्र को रुद्रप्रयाग कहा गया है।

केदारनाथ धाम के कपाट अप्रैल-मई माह में विधि-विधान से घोषित तिथि के उपरांत खुलते हैं तथा दीपावली के पश्चात बंद कर दिए जाते हैं।

शीतकाल में 6 माह भगवान केदारनाथ की चल-विग्रह डोली एवं दंडी ऊखीमठ में पूजा-अर्चना हेतु स्थापित की जाती है। इस धाम का तापमान शीत ऋतु में शून्य से बहुत नीचे पहुंच जाता है।

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मंदिर से जुड़ी पौराणिक मान्यताएं

हिमालय के केदार शृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें दर्शन दिए तथा नर-नारायण के आग्रह से भगवान शिव ज्योर्तिलिंग स्वरूप में वहीं पर विराजमान हो गए।

पंच केदार की कथा

इसी क्रम में पुराणों में वर्णित पंच केदार की कथा के के अनुसार महाभारत के युद्ध में विजयी होने के उपरांत पांडव अपने भ्रातृहत्या की हत्या के पाप से मुक्त होना चाहते थे

इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे।

भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे और उनकी परीक्षा लेने के लिए अंर्तध्यान होकर केदार जा बसे।  दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए।

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बैल का रूप धारण किया

भगवान शिव ने पांडवों को आता देख बैल का रूप धारण कर लिया और पशुओं के झुंड में जा मिले। तब पांडवों ने भगवान के दर्शन पाने के लिए एक योजना बनाई और भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर अपने दोनों पैर केदार पर्वत के दोनों ओर फैला दिए।

कहा जाता है कि अन्य सब पशु तो भीम के पैरों के नीचे से निकल गए लेकिन शंकर जी रूपी बैल पैरों के नीचे से निकलने को तैयार नहीं हुआ।

जब भीम ने उस बैल को जबरदस्ती पकड़ना चाहा तो भोलेनाथ विशाल रूप धारण कर धरती में समाने लगे। उसी क्षण भीम ने पूरी ताकत से भैंस की पीठ का भाग कस कर पकड़ लिया।

उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ।

अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है।

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