मलिका नूरजहां का नाम मुगलकाल की महत्वपूर्ण महिलाओं में शामिल है। वह एतिमातुद्दौला की बड़ी साहसी बेटी थी।सन् 1611 में जहांगीर से उसकी शादी हुई। राज-काज के मामलों में पूरी दिलचस्पी लेती थी। गरीबों की मददगार और कमजोरों को हौसला देती थी।
नूरजहां के नाम के सिक्के भी चलते थे सिक्कों पर बादशाह जहांगीर के साथ उसका नाम भी खुदा हुआ था। शाही फरमानों पर बादशाह के साथ उसके भी हस्ताक्षर होते थे।
किसी को भी सीधे उससे मिलने की इजाजत नहीं थी तथा पहले पैगाम भेजकर इजाजत लेनी पड़ती थी। इस काम के लिए नियुक्त किन्नर पैगाम ले जाने का काम करते थे।
जहांगीर की इकबुल नामक एक और बेगम भी थी। वह राजपूत घराने की औरत थी। उसी के गर्भ से शहजादा खुसरो का जन्म हुआ। शहंशाह ने इकबुल को भी शाह बेगम का खिताब दिया हुआ था।
नूरजहां का असली नाम मेहरुन्निसा था। शहजादा सलीम ने उसे एक बाग में देखा था। शहजादा ने उसे दो कबूतर पकड़ा कर कहा था कि वह थोड़ी देर में लौटकर आएगा और तब तक वह कबूतरों को काबू में रखे।
इस बीच एक कबूतर मेहरुन्निसा के हाथ से उड़ गया। जहांगीर ने लौटकर पूछा कि कबूतर कैसे उड़ गया? मेहरुन्निसा ने बड़ी मासूमियत के साथ दूसरा कबूतर भी उड़ाकर कहा कि ऐसे उड़ गया।
शहजादा सलीम यानी जहांगीर मेहरुन्निसा की मासूमियत और खूबसूरती पर फिदा हो गया। उसी दिन उसने नूरजहां को अपनी मलिका बनाने का फैसला कर लिया। जहांगीर के पिता अकबर इस शादी के विरुद्ध था।
मेहरुन्निसा के पिता ने भी शादी की इजाजत नहीं दी। वह मेहरुन्निसा की शादी अपने भतीजे अलीगुल से करना चाहता था जो आगे चल कर शेर अफगन के नाम से मशहूर हुआ क्योंकि उसने अपने हाथों से शेर को मार गिराया था।
मेहरुन्निसा से जब उसके बाप ने पूछा तो उसने भी अलीगुल से ही शादी करने की इच्छा प्रकट की। इस प्रकार शादी हो गई और दोनों बंगाल में जाकर रहने लगे। जहां अलीगुल की बहुत बड़ी जागीर थी।
अकबर की मौत के बाद जब जहांगीर तख्त पर बैठा तो उसने बहुत कोशिश की कि किसी तरह मेहरुन्निसा मान जाए और अपने पति को तलाक दे दे।
मगर जब-जब जहांगीर के आदमी मेहरुन्निसा को मनाने जाते वह साफ इंकार कर देती और बादशाह को संदेश भिजवाती कि उसे अपने राज्य की औरतों को अपने पतियों को तलाक देने के लिए नहीं उकसाना चाहिए।
किसी औरत को तलाक के लिए मजबूर करके उससे जबरदस्ती शादी करना कानून के भी विरुद्ध है।
जब कोई चारा न रहा तो जहांगीर ने साजिश करके मेहरुन्निसा के पति की हत्या करवानी चाही लेकिन जब वह इसमें सफल न हुआ तो बाद में जहांगीर ने बंगाल के गवर्नर कुतुबुद्दीन को कह कर शेर अफगन की हत्या करवा दी।
इस तरह मेहरुन्निसा विधवा हो गई और फिर उसे आगरा के शाही हरम में ले जाया गया। जहांगीर ने बहुत कोशिश की कि किसी तरह वह उसे शादी के लिए राजी कर ले लेकिन वह नहीं मानी।
वह हर समय अपने पास एक जहर की पुड़िया और एक छुरा रखती ताकि अगर कभी जहांगीर उसके साथ कुछ गलत करने की कोशिश करे तो वह छुरे से अपनी रक्षा करे और जहर खाकरमर जाए पर जहांगीर उससे प्यार की भीख मांगता रहा जिसे वह ठुकराती रही।
उसके प्यार में दीवाना जहांगीर अपने काम भी ठीक से नहीं देख पाता था। जब ऐसी स्थिति पैदा हो गई तो वजीरों ने मेहरुन्निसा से प्रार्थना की तो बड़ी मुश्किल से वह राजी हो पाई।
मेहरुन्निसा के साथ पहली भेंट के कई वर्ष बाद इन दोनों की शादी हुई। मेहरुन्निसा को ‘नूरजहां‘ का खिताब दिया गया। वह भारत की मलिका बनी और वास्तव में हुकूमत की बागडोर उसी के हाथ में थी, जहांगीर तो हमेशा शराब के नशे में धुत्त रहता था।
जब जहांगीर का दरबार लगा होता तो नूरजहां तख्त के पीछे उसकी पीठ पर हाथ रख कर बैठ जाती। जब तक वह नूरजहां का हाथ अपनी पीठ पर महसूस करता रहता तब तक हर मामले पर सही-सही फैसले सुनाता और जैसे ही वह हाथ सरक जाता, जहांगीर दरबार से उठ जाता।
नूरजहां की अंतिम इच्छा के अनुरूप उसकी मृत्यु के बाद उसे एक बहुत ही मामूली व्यक्ति की तरह दफनाया गया और कब्र पर बहुत ही मामूली किस्म का मकबरा बनवाया गया। उस मकबरे पर एक शे’र खुदा हुआ है जिसका अर्थ इस प्रकार है :
“एकांत में बनी मेरी इस कब्र पर कोई गुलाब न उगाए जाएं, कोई बुलबुल न गाए, कोई दीया न जले, कोई पतंगा न फड़फड़ाए।” और जहांगीर के मकबरे पर जो शब्द खुदे हुए हैं उनका अर्थ यह है : “हरी घास के सिवाय यहां कुछ न हो क्योंकि यह एक नश्वर निरीह प्राणी की कब्र है और सदा कब्र ही रहेगी।”
अक्तूबर 1627 में जहांगीर जब कश्मीर से दिल्ली लौट रहा था तो रास्ते में राजौरी नामक स्थान पर सहसा उसकी मृत्यु हो गई थी।
पंजाब केसरी से साभार