द्वितीय विश्व युद्ध केवल युद्ध नहीं था, यह इंसानी सभ्यता तथा मानवीयता के लिए एक अभिशाप था। इसने पूरी दुनिया में तबाही मचा दी और लाखों जानें इस युद्ध की भेंट चढ़ गईं।
पूरी दुनिया गवाह है कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापानी सिपाहियों से ज्यादा क्रूर और आज्ञाकारी सिपाही शायद ही कोई अन्य हों। उस समय जापान में राजशाही वस्तुतः एक फासिस्ट किस्म के सिस्टम पर शासन करती थी।
जनता को देश के लिए मरने और मारने की घुट्टी मिली होती थी। ‘कामिकाजे’ एक प्रथा है जिसमें बचने का कोई मार्ग न मिलने पर समुराई या कहिए फौजी अपनी मौत को उद्देश्य बना कर लड़ता है।
यूं तो 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हो गया था परंतु इम्पीरियल जापानी आर्मी का एक सिपाही हीरू ओनोदा युद्ध विराम के बाद भी 1974 तक अपने दम पर लड़ता रहा।
1945 में फिलीपींस में एक मिशन के लिए उसे भेजते समय आदेश दिया गया था कि किसी भी हाल में वह समर्पण न करे। इसी आदेश के कारण वह 1974 तक लड़ता रहा पर जब उसे पता चला कि युद्ध तो 1945 में ही खत्म हो चुका है तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।
बाद में उसे उसी साल यानी 1974 में अपने भूतपूर्व कमांडिंग अफसर से ऑर्डर मिला कि वह अपनी ड्यूटी से विराम ले लें, तब जा कर वह अपने काम से सेवानिवृत्त हुआ।
हीरू ओनोदा ने अपने भाई के साथ 1940 में जापानी सेना ज्वाइन की थी। उसे एक इंटैलीजैंस अफसर और कमांडो की ट्रेनिंग दी गई थी।
उसे फिलीपींस के एक टापू लुबाग पर अमरीकी हवाई अड्डे की पट्टी को नष्ट करने के लिए भेजा गया परंतु वहां के स्थानीय जापानी अधिकारियों ने उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं दी और अंतत: अमरीकी फौज वहां उतरी और उनके दल में शामिल अधिकतर सैनिक मारे गए। हीरू और उनके 3 साथी ही बचे।
हीरू अन्यों से सीनियर था तो उसने सभी को पहाड़ों में जा छुपने का आदेश दिया और वहां से चुप कर गोरिल्ला लडाई जारी रखी।
युद्ध खत्म होने की जानकारी को समझा झूठा प्रचार
कुछ दिनों बाद उन्हें जंगल में हवाई जहाज से गिराए गए पर्चे मिले जिन पर लिखा था कि युद्ध समाप्त हो चुका है जापान ने हार मान ली है।
उन्होंने सोचा कि जापान तो हार मान ही नहीं सकता और उन्होंने इसे झूठा प्रचार समझ कर मानने से इंकार कर दिया। हीरू और उनके साथियों का संघर्ष जारी रहा। 6 साल बाद उनका एक साथी भाग गया।
फिर पर्चे गिरे जिसमें साथी के आत्मसमर्पण की जानकारी थी। यह पर्चा पढ़ कर तो हीरू और उसके दो साथियों के गुस्से का पारावार न रहा l उन्होंने मरते दम तक देश के लिए संघर्ष की कसम खाई। कोई भागे तो दूसरे को उसे गोली मारने का हक था।
तब तक पर्वतों की तलहटी पर खेती शुरू हो गई थी और किसानों के भेस में अमरीकी जासूस उनकी टोह लेने आते थे इसलिए वे किसानों को मारते, फसलें जला देते, खाने भर के लिए लूट लेते। ऐसी ही एक लड़ाई में हीरू का साथी मारा गया। अब 2 बचे परंतु 10-12 साल बाद उनका अंतिम साथी भी मर गया।
इस तरह खत्म हुई उसकी लड़ाई
हीरू को जंगल में एक दिन एक जापानी युवक मिला। हीरू ने उसे बंधक बना लिया। उसने बताया कि युद्ध तो सच में 30 साल पहले ही खत्म हो चुका है।
जापान पर एटम बम गिराए जाने और उसके बाद जापान के आत्मसमर्पण से लेकर तत्कालीन समाज की जानकारी उसने हीरू को दी परंतु हीरू अब भी यकीन न कर पाया। उसे कमांडिंग अफसर का आदेश था कि आत्मसमर्पण नहीं करना है।
युवक को उसने छोड़ दिया। उसी युवक ने जापान जाकर हीरू के कमांडिंग अफसर को खोज निकाला और उसे फिलीपींस लाया। हीरू के पहाड़ पर कमांडिंग अफसर अकेले गया। उसे शाबाशी दी और कहा, “युद्ध खत्म हो गया है, आत्मसमर्पण कर दो!”
हीरू ने सिर झुकाया, सैल्यूट किया और जमीन पर बैठ कर जार-जार रोने लगा। 30 साल आंखों के सामने घूम गए। उसका संघर्ष, उसके साथियों की शहादत, उसके हाथ से कत्ल हुए लोग सब बेकार!!! इतने साल वह फौजी नहीं था।
यह वर्ष 1974 था। फटी हुई वर्दी पहने हीरू ने अपनी एसाल्ट गन, कुछ कारतूस और समुराई तलवार के साथ फिलीपींस के राष्ट्रपति के समक्ष आत्म समर्पण किया। उस पर 30 से ज्यादा हत्या के मामले थे मगर माफी दे दी गई। उसके बाद हीरू अपने देश लौटा।
साभार पंजाब केसरी