आज 15 अगस्त, 2023 को देशभर में 77वां स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है। 15 अगस्त 1947 को भारत देश ने अंग्रेजों के शासन से 200 वर्ष बाद आजादी प्राप्त की थी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हज़ारों-लाखों जाने-अनजाने व्यक्तियों के योगदान से भारत आजाद हुआ है।
भारत के हर एक देशवासी ने अपने राज्य और क्षेत्र के स्तर से ऊपर उठ कर भारत को स्वाधीन करने का बीड़ा उठाया और आखिर 15 अगस्त 1947 को इन सबकी मेहनत रंग लायी। अंग्रेजों के खिलाफ इस संघर्ष में जहाँ देश भर के विशिष्ट राजनायकों, समाजसेवियों, क्रांतिकारियों ने योगदान दिया वहीँ सुदूर- दुर्गम क्षेत्रों में बसने वालीं जनजातियों ने भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया।
भारत के ये जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी, जिन्हें ज्यादा लोग नहीं जानते भारत के ऐसे महान सुपूत थे जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। भारतीय जनजाति समुदाय से सम्बंधित ऐसे ही कुछ महान स्वंतंत्रता नायकों की जानकारी हम आपके साथ इस पोस्ट के माध्यम से साँझा कर रहे हैं।
बिरसा मुंडा
मुंडा जनजाति के बिरसा मुंडा अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के महानायक थे। उन्होंने अंग्रेजों के साथ कई संघर्षों में मुंडा लोगों का नेतृत्व किया। उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया गया और ब्रिटिश रिकॉर्ड के अनुसार जेल में ही हैजा से उनकी मौत हो गई। हालाँकि कुछ स्रोतों के अनुसार 9 जून 1900 को रांची जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। जिस समय उनकी मौत हुई वह सिर्फ 25 साल के थे।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 में हुआ था। इनके जन्मदिन 15 नवंबर को देश में ‘जनजातीय गौरव दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है। बिरसा मुंडा की समाधि रांची के कोकर में स्थित है। वे आदिवासियों के बीच भगवान की तरह पूजे जाते हैं और इन्हें भगवान बिरसा मुंडा कहा जाता है।
भीमा नायक
भीमा नायक का जन्म मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले में हुआ था। वर्ष 1857 में हुए अंबापानी युद्ध में भीमा नायक की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अंग्रेज जब भीमा नायक को सीधे नहीं पकड़ पाए तो उन्होंने उन्हें धोखे से पकड़ा।
तत्कालीन समय में जब तात्या टोपे निमाड़ आए, तब उनकी मुलाकात भीमा से हुई। इसी दौरान भीमा ने उन्हें नर्मदा नदी पार करने में सहयोग किया था। भीमा नायक को निमाड़ का रॉबिनहुड़ कहा जाता है।
तांतिया भील
मध्यप्रदेश के रोबिन हुड के नाम से मशहूर तांतिया भील ने अंग्रेजों की धन-संपत्ति ले जा रही ट्रेनों में डकैती डाली और उस संपत्ति को अपने समुदाय के लोगों के बीच बांट दिया। उन्हें भी जाल बिछाकर पकड़ा और फांसी पर चढ़ा दिया गया।
तांतिया भील का जन्म मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में 1842 में हुआ था। इन्हें आदिवासी नायक, टंट्या मामा और ‘भारत के रॉबिनहुड‘ के नाम से भी जाना जाता है। अपने जीवनकाल में तांतिया भील मामा ने आजादी के अनेक विद्रोहों में भाग लिया। 1857 की क्रांति में इन्होंने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। उन्होंने गोरिल्ला युद्ध पद्धति के जरिए अंग्रेजों से लोहा लिया। 4 दिसंबर 1889 को उन्हें फांसी दी गई।
जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी
संस्कृति मंत्रालय ने 20 जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों की कथाओं पर आधारित तीसरी कॉमिक बुक जारी की है। जिनमें ऊपर लिखित सेनानियों के आलावा इन सेनानियों की कहानियां सम्मिलित हैं।
- तिलका मांझी, जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्ष किया। वे पहाड़िय़ा जनजाति के सदस्य थे और उन्होंने अपने समुदाय को साथ लेकर कंपनी के कोषागार पर छापा मारा था। इसके लिए इन्हें फांसी की सजा दी गई।
- थलक्कल चंथू, कुरिचियार जनजाति के सदस्य थे और इन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ पाजासी राजा के युद्ध में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इन्हें फांसी दे दी गई।
- बुद्धु भगत, उरांग जनजाति के सदस्य थे। ब्रिटिश अधिकारियों के साथ हुई कई मुठभेड़ों में से एक में इन्हें, इनके भाई, सात बेटों और इनकी जनजाति के 150 लोगों के साथ गोली मार दी गई।
- खासी समुदाय के प्रमुख तीरत सिंह को अंग्रेजों की दोहरी नीति का पता लग गया था, इसलिए उन्होंने उनके खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। इन्हें पकड़ लिया गया, यातना दी गई और जेल में डाल दिया गया। जेल में ही इनकी मौत हो गई।
- राघोजी भांगरे, महादेव कोली जनजाति के थे। इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया और उनकी मां को कैद किए जाने के बावजूद उनका संघर्ष जारी रहा। इन्हें पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई।
- सिद्धू और कान्हू मुर्मू, संथाल जनजाति के सदस्य थे, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। इन्होंने हुल विद्रोह में संथाल लोगों का नेतृत्व किया। दोनों को धोखा देकर पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई।
- रेन्डो मांझी और चक्रा विसोई, खोंद जनजाति के थे। जिन्होंने अपनी जनजाति के रिवाजों में हस्तक्षेप करने पर ब्रिटिश अधिकारियों का विरोध किया। रेन्डो को पकड़ कर फांसी पर लटका दिया गया जबकि चक्रा विसोई भाग गया और कहीं छिपे रहने के दौरान उसकी मौत हो गई।
- मेरठ में शुरू हुए भारतीय विद्रोह में खारवाड़ जनजाति के भोगता समुदाय के नीलांबर और पीतांबर ने खुलकर भाग लिया और ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने में अपने लोगों का नेतृत्व किया। दोनों को पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गई।
- गोंड जनजाति के रामजी गोंड ने उस सामंती व्यवस्था का विरोध किया, जिसमें धनी जमींदार अंग्रेजों के साथ मिलकर गरीबों को सताते थे। इन्हें भी पकड़ कर फांसी पर चढ़ा दिया गया।
- खरिया जनजाति के तेलंगा खरिया ने अंग्रेजों की कर व्यवस्था और शासन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और इस बात पर अड़े रहे कि उनकी जनजाति का स्वशासन का पारंपरिक तरीका जारी रखा जाए। उन्होंने अंग्रेजों के कोषागार पर संगठित हमले किए। उन्हें धोखे से पकड़ कर गोली मार दी गई।
- मणिपुर के मेजर पाउना ब्रजवासी, अपनी मणिपुर की राजशाही को बचाने के लिए लड़े। वे अंग्रजों और मणिपुर के राजा के बीच हुए युद्ध के हीरो थे। वे एक सिंह की तरह लड़े लेकिन उन्हें पकड़ कर उनका सर धड़ से अलग कर दिया गया।
- अरुणाचल प्रदेश की आदि जनजाति के मटमूर जमोह ब्रिटिश शासकों की अकड़ के खिलाफ लड़े। उनके गांव जला दिए गए जिसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ अंग्रेजों के सामने हथियार डाल दिए। उन्हें सेलुलर जेल भेज दिया गया, जहां उनकी मौत हो गई।
- उरांव जनजाति के ताना भगत अपने लोगों को अंग्रेज सामंतों के अत्याचार के बारे में बताते थे और ऐसा माना जाता है कि उन्हें लोगों को उपदेश देने का संदेश उनके आराध्य से मिला था। उन्हें पकड़ कर भीषण यातनाएं दी गईं। यातनाओं से जर्जर ताना भगत को जेल से रिहा तो कर दिया गया, लेकिन बाद में उनकी मौत हो गई।
- चाय बागान में काम करने वाले समुदाय की मालती मीम महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन से प्रभावित होकर उसमें शामिल हो गईं। उन्होंने अफीम की खेती पर अंग्रेजों के आधिपत्य के खिलाफ संघर्ष किया और लोगों को अफीम के नशे के खतरों के बारे में जागरूक किया। पुलिस के साथ मुठभेड़ में गोली लगने से उनकी मौत हो गई।
- भूयां जनजाति के लक्ष्मण नायक भी गांधी जी से प्रेरित थे और उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने के लिए अपनी जनजाति के लोगों को काफी प्रेरित किया। अंग्रेजों ने उन्हें अपने ही एक मित्र की हत्या के आरोप में पकड़ कर फांसी की सजा दे दी।
- लेप्चा जनजाति की हेलन लेप्चा, महात्मा गांधी की जबरदस्त अनुयायी थीं। अपने लोगों पर उनके प्रभाव से अंग्रेज बहुत असहज रहते थे। उन्हें गोली मार कर घायल किया गया, कैद किया गया और प्रताड़ित किया गया लेकिन उन्होंने कभी साहस नहीं छोड़ा। 1941 में उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की उस समय जर्मनी भागने में मदद की जब वह घर में नजरबंद थे। उन्हें स्वाधीनता संघर्ष में अतुलनीय योगदान के लिए ‘ताम्र पत्र’ से पुरस्कृत किया गया।
- पुलिमाया देवी पोदार ने गांधीजी का भाषण तब सुना जब वह स्कूल में थीं। वे तुरंत स्वाधीनता संघर्ष में शामिल होना चाहती थीं। अपने परिवार के कड़े विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद न सिर्फ खुद आंदोलन में हिस्सा लिया बल्कि अन्य महिलाओं को भी इसके लिए प्रोत्साहित किया। विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के कारण उन्हें कैद कर लिया गया। आजादी के बाद भी उन्होंने अपने लोगों की सेवा करना जारी रखा और उन्हें ‘स्वतंत्रता सेनानी’ की उपाधि दी गई।