पिछले लेख में हमने बताया था कि असम की जतिंगा वैली हर साल बड़े पैमाने पर पक्षी ‘आत्महत्या’ करते हैं. अब इस लेख में पढ़ें इसके पीछे के संभावित कारण.
वैज्ञानिक अध्ययनों और प्रयोगों के बाद यह निष्कर्ष निकला है कि पक्षी आमतौर पर यहाँ की गहरी धुंध या कोहरे से विचलित हो जाते हैं और वे गांव की रोशनी की तरफ आकर्षित होते हैं और बदहवासी में रोशनी की तरफ उड़ते हैं. रोशनी की तरफ उड़ते समय वह पेड़ों, कंटीली झाडियों और रास्ते में आने वाली किसी भी चीज़ से टकरा जाते हैं. जिसके कारण कुछ पक्षी मर जाते हैं, जबकि अन्य गंभीर रूप से घायल होते हैं.
अध्ययन से यह भी पता चला है कि पक्षी केवल गांव के उत्तरी छोर से ही आते हैं और लगभग 1.5 किलोमीटर लम्बी और 200 मीटर चौड़ी पट्टी में ही इन हादसों का शिकार होते हैं. अध्ययनों दौरान पक्षी गांव के दक्षिणी किनारे में रखी गयी रोशनी की तरफ आकर्षित नहीं हुए.
मरने वाले पक्षियों में स्थानीय और प्रवासी पक्षियों की लगभग 40 प्रजातियां शामिल हैं और उनमें से अधिकांश पक्षी पास की घाटियों और पहाड़ी ढलानों से आते हैं. इनमें किंगफिशर (Kingfishers), ब्लैक बिटन (Black Bitterns), टाइगर बिटर्न्स (Tiger Bitterns) और पॉन्ड हेरस (Pond Herons) आदि पक्षी शामिल हैं.
यदि दूसरे वैज्ञानिकों के अध्ययन पर नजर डालें तो लगता है कि ज्यादातर आत्मघाती पक्षी मानसून के मौसम में अपने प्राकृतिक आवासों को खो देते हैं इसलिए वे आवास की तलाश में जतिंगा वैली में आते हैं. लेकिन अभी भी रहस्य बना हुआ है कि आखिरकार ये पक्षी रात में उड़ते ही क्यों हैं? और वे हर साल एक ही स्थान पर क्यों इन हादसों का शिकार हो जाते हैं?
प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी अनवरुद्दीन चौधरी का मानना है कि, “सही-सही कहें तो यह आत्महत्या नहीं है. लेकिन यह बात भी सच है कि यहाँ पर पक्षी रौशनी की तरफ आकर्षित हो रहे हैं. यह बात पक्षी विज्ञान के लिहाज से बहुत ही अजीब है.”
भारत के सबसे प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी दिवंगत सलीम अली भी इस घटना से चकित थे. “मेरे लिए सबसे अजीब चीज़ यह है कि पक्षियों की इतनी सारी प्रजातियां उस समय उड़ रही होती हैं जिस समय उन्हें गहरी नींद में होना चाहिए। इस समस्या का विभिन्न कोणों से गहरा वैज्ञानिक अध्ययन किये जाने की जरुरत है“, उन्होंने लिखा था।
स्थानीय लोगों का कहना है कि आत्महत्या की पहली बार ऐसी घटना 1900 के दशक में हुयी थी, जिसने गांव वासियों को बुरी तरह डरा दिया था. इसकी वजह से उन्होंने अपनी जमीन जतियंज (Jaintias) को बेची और 1905 में जगह छोड़ दी थी. जब फिर से Jaintias लोग इस जगह पर बसे तो उन्होंने इसे भगवान द्वारा दिया गया उपहार मान लिया.
आखिर हो भी क्यों नहीं. इस घटना ने गाँव को देश-विदेश में प्रसिद्ध कर दिया है. दुनिया भर के वन्य-जीव विज्ञानी, शौधकर्ता और टूरिस्ट इस घटना का गवाह बनने और खोज करने के लिए यहाँ आते हैं. मानसून के महीनों के दौरान भारी संख्या में पर्यटक यहाँ आते हैं. ये पक्षी खाने में स्वादिष्ट होते हैं और लोग इनके विभिन्न व्यंजनों का लुत्फ़ उठाते हैं. हर साल लोग पक्षियों को आकर्षित करने और उन्हें पकड़ने के लिए घरों की रौशनी और लालटेन आदि का प्रयोग करते है.
जिला प्रशासन ने पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पक्षी आत्महत्या के समय एक त्योहार आयोजित किया जाता है, जिसे जतिंगा महोत्सव कहा जाता है. जतिना महोत्सव सबसे पहले 2010 में आयोजित किया गया था.