नीरजा भनोट एक सफल मॉडल और एयरहोस्टेस थीं। 5 सितम्बर, 1986 को हुए प्लेन हाईजैक में उन्होंने बहादुरी का परिचय देते हुए 300 से ज्यादा लोगों की जान बचाई थी।
पत्रकार पिता की लाडली नीरजा खूबसूरत और चुलबुली थीं। जज्बे, हिम्मत और हौसले की मिसाल इस लड़की का नाम एविएशन हिस्ट्री में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। पढ़ाई, खेल और दिखने में 90 की दशक की अभिनेत्रियों को टक्कर देने वाली नीरजा हर मामले में अव्वल थीं
उनकी जिंदगी में सब कुछ सही चल रहा था। फिर एक ऐसी तारीख आई, जिसने साहस की एक नई परिभाषा लिखी। 5 सितम्बर, 1986 : ‘पैन एएम 73’ फ्लाइट ने मुंबई से उड़ान भरी। फ्लाइट को न्यूयॉर्क जाना था, लेकिन पाकिस्तान का कराची शहर उसका पहला पड़ाव था।
कराची के जिन्ना एयरपोर्ट पर फ्लाइट लैंड हुई। कुछ यात्री उतरे तो कुछ आगे की यात्रा के लिए सवार हुए। पायलट ने टेकऑफ की तैयारी शुरू की। इसी बीच 4 आतंकी विमान में दाखिल हो गए और एक दम से आवाज आई ‘हाईजैक’। हालांकि, अपने नापाक इरादों वाले आतंकियों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि इस प्लेन में भारत की एक ‘शेरनी’ भी है।
प्लेन में 4 आतंकी, 360 यात्री और क्रू मेंबर्स समेत 379 लोग सवार थे। इन्हीं क्रू मैम्बरों में से एक थीं नीरजा भनोट। वह चाहतीं तो अपनी जान बचाकर वहां से भाग सकती थीं, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और अपनी सूझबूझ से सभी यात्रियों को वहां से सुरक्षित निकाला।
नीरजा ने आतंकियों के कहने पर सभी यात्रियों के पासपोर्ट इकठ्ठा किए परंतु बड़ी सफाई से 43 अमेरिकी यात्रियों के पासपोर्ट छुपा दिए जिससे हाईजैकर्स उन्हें पहचान कर मार न पाएं। करीब 17 घंटे बंधक बनाए रहने के बाद भी जब आतंकवादियों की प्लेन उड़ाने के लिए मांग नहीं मानी गई तो उन्होंने विमान में विस्फोटक लगाना शुरू किया। नीरजा ने चतुराई से प्लेन का एमरजैंसी दरवाजा खोल दिया।
सबसे पहले प्लेन से बाहर निकल सकने के अवसर के बावजूद नीरजा ने कर्मठता का परिचय देते हुए यात्रियों की मदद की और अंत में 3 बच्चों को गोली से बचाने के प्रयास में उन्हें खुद के शरीर से ढंक लिया और वीरगति को प्राप्त हुईं।
नीरजा भनोट के बलिदान के बाद भारत सरकार ने उनको सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘अशोक चक्र’ प्रदान किया, तो वहीं पाकिस्तान की सरकार ने भी नीरजा को ‘तमगा-ए-इंसानियत’ प्रदान किया। वर्ष 2005 में अमरीका ने उन्हें ‘जस्टिस फॉर क्राइम अवार्ड’ दिया। सन् 2004 में नीरजा भनोट के सम्मान में डाक टिकट भी जारी हो चुका है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नीरजा का नाम ‘हीरोइन ऑफ हाईजैक’ के तौर पर मशहूर है। उनकी कहानी पर आधारित 2016 में एक फिल्म भी बनी, जिसमें उनका किरदार सोनम कपूर ने अदा किया था।
प्रारंभिक जीवन और परिवार
नीरजा भनोट का जन्म 7 सितंबर 1963 को चंडीगढ़ में एक पंजाबी हिंदू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वह पत्रकार हरीश भनोट और रमा भनोट की बेटी थीं। उन्होंने अपनी प्रारंभिक स्कूली शिक्षा चंडीगढ़ के सेक्रेड हार्ट सीनियर सेकेंडरी स्कूल में प्राप्त की।
जब परिवार बॉम्बे चला गया, तो उन्होंने बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल में अपनी पढ़ाई जारी रखी और फिर सेंट जेवियर्स कॉलेज, बॉम्बे से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। यह बॉम्बे ही था जहाँ उन्हें पहली बार एक मॉडलिंग असाइनमेंट के लिए देखा गया था जहाँ से उनके मॉडलिंग करियर की शुरुआत हुई।
वह अभिनेता राजेश खन्ना की बहुत बड़ी प्रशंसक थीं और जीवन भर उनकी फिल्मों के उद्धरणों का उल्लेख करती थीं।
हाईजैकिंग घटनाक्रम
नीरजा भनोट फ़्लाइट पैन एम फ्लाइट 73(Pan Am Flight 73) में मुख्य फ़्लाइट प्रबंधक थीं। यह बोइंग 747 बॉम्बे से कराची और फ्रैंकफर्ट होते हुए न्यूयॉर्क जा रहा था, जिसे 5 सितंबर 1986 को चार फिलिस्तीनी आतंकीयों ने हाईजैक कर लिया था। विमान में 380 यात्री और 13 चालक दल के सदस्य सवार थे। अपहरणकर्ता अबू निदाल आतंकवादी संगठन का हिस्सा थे।
आतंकी साइप्रस में अपने आतंक ग्रुप के साथी कैदियों को मुक्त करवाने के लिए साइप्रस और इजराइल के लिए उड़ान भरना चाहते थे। जैसे ही अपहरणकर्ता विमान में चढ़े, और जैसे ही विमान एप्रन पर था, पायलट, सह-पायलट और फ्लाइट इंजीनियर के तीन सदस्यीय कॉकपिट क्रू कॉकपिट में एक ओवरहेड हैच के माध्यम से विमान से निकल भागे। इसके बाद सबसे वरिष्ठ केबिन क्रू सदस्य के रूप में, भनोट ने विमान के अंदर की स्थिति को संभाला।
अपहरण के शुरुआती घंटे में, आतंकियों ने एक भारतीय-अमेरिकी नागरिक राजेश कुमार की पहचान की। पायलटों को विमान में न पाकर बौखलाए आतंकियों ने राजेश कुमार को गोली मार कर उसके शव को विमान से बाहर फेंक दिया। इसके बाद ही यात्रियों को आतंकियों के ख़ौफ़नाक इरादों और उनकी भयवहता का पता चला।
आतंकवादियों ने भनोट को सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्र करने का निर्देश दिया ताकि वे विमान में सवार अन्य अमेरिकियों की पहचान कर सकें। उसने और उसके अधीन अन्य परिचारकों ने विमान में सवार शेष 43 अमेरिकियों के पासपोर्ट छिपा दिए, कुछ को एक सीट के नीचे और बाकी को कूड़ेदान में छिपा दिया ताकि अपहरणकर्ता अमेरिकी और गैर-अमेरिकी यात्रियों के बीच अंतर न कर सकें।
हालाँकि फ़्लाइट में किसी भी अमेरिकी को न पाकर आतंकियों ने कुछ ब्रिटिश नागरिकों को चुन लिया। उनको को फर्श पर बैठा दिया गया और अन्य यात्रियों की तरह उन्हें भी अपने हाथ सिर के ऊपर रखने को कहा गया।
17 घंटे के बाद भी पायलटों को ना पाकर, अपहरणकर्ताओं ने गोलीबारी शुरू कर दी और विमान में विस्फोटक लगाने शुरू कर दिए। भनोट ने विमान का एक दरवाज़ा खोला, और भले ही वह विमान से कूदकर भागने वाली पहली व्यक्ति हो सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और इसके बजाय अन्य यात्रियों को भागने में मदद करना शुरू कर दिया।
जीवित बचे एक यात्री के अनुसार, “वह यात्रियों को आपातकालीन निकास की ओर ले जा रही थी। तभी आतंकवादी कमांडो हमले के डर से लगातार गोलीबारी कर रहे थे। उन्होंने देखा कि नीरजा तीन अकेले बच्चों और अन्य को बाहर निकालने की लगातार कोशिश कर रही थी और तभी उन्होंने उसके बाल पकड़े और उसे ब्लैंक प्वाइंट रेंज से गोली मार दी।”
विमान में सवार एक बच्चा, जो उस समय सात वर्ष का था, बाद में एक प्रमुख एयरलाइन में कैप्टन बन गया। उसने अनुसार भनोट उसकी प्रेरणा रही है और वह अपने जीवन के हर एक दिन के लिए उनका ऋणी है।
नीरजा भनोट को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “अपहरण की नायिका” (The Heroine of the Hijacking) के रूप में मान्यता मिली। शांतिकाल में बहादुरी के लिए भारत के सबसे प्रतिष्ठित वीरता पुरस्कार, अशोक चक्र पुरस्कार की सबसे कम उम्र की प्राप्तकर्ता (मरणोपरंत) बनीं।
प्रशंसापत्र
विमान में सवार एक अमेरिकन यात्री माइक थेक्सटन ने अपनी पुस्तक ‘व्हाट हैपेंड टू द हिप्पी मैन?‘ में नीरजा और अन्य फ़्लाइट स्टाफ़ का वर्णन “अत्यंत साहसी, निस्वार्थ और चतुर” के रूप में किया है।
“मैं पक्षपातपूर्ण हो सकता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि उस दिन यह साबित हो गया कि विमान में मौजूद फ्लाइट अटेंडेंट अपने उद्योग में सर्वश्रेष्ठ थे।”, माइक लिखते हैं।
माइक बताते हैं कि एक जोरदार लात के अलावा उसके साथ कोई शारीरिक दुर्व्यवहार नहीं किया गया और बाद में मची अफरा-तफरी में वह दूसरों के साथ भाग निकला।
इसके अलावा इस हाईजैकिंग में बचे बहुत सारे यात्रीयों ने नीरजा भनोट को एक मसीहे की संज्ञा दी जिसने अपने प्राणों की परवाह किए बिना बेहद समझदारी और चालाकी से काम लेते हुए ना बल्कि आतंकियों से यात्रियों की रक्षा की अपितु उन्हें भागने में भी मदद की, जबकि वे विमान से बाहर निकलने वाली पहली यात्री हो सकती थीं। अपने इस अभियान ने हालाँकि उन्हें अपनी जान गवानी पड़ी लेकिन अपने काम के प्रति समर्पण और इंसानियत की वह एक ऐसी बनकर उभरी जिसमें वह आने वाली पीढ़ियों का हमेशा मार्गदर्शन करती रहेंगी।