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महर्षि दयानंद सरस्वती – दया की मूर्ती जिन्होंने अपने हत्यारे की भागने में मदद की – रोचक तथ्य

महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती (1824-1883) आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक, तथा आर्य समाज के संस्थापक थे। उनके बचपन का नाम ‘मूलशंकर’ था। उन्होंने वेदों के प्रचार और आर्यावर्त अर्थात भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए आर्यसमाज की स्थापना की। स्वराज शब्द का प्रयोग पहली बार स्वामी दयानंद सरस्वती ने ही किया था।

प्रारम्भिक जीवन

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 26 फ़रवरी 1824 में टंकारा,  जिला राजकोट, गुजरात में हुआ था। (कुछ स्रोत 12 फरवरी को मानते हैं।)

उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे।

दयानन्द सरस्वती का प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। परन्तु उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया।

एक बार महाशिवरात्रि की घटना है जब वे चौदह वर्ष के थे। शिवरात्रि की रात उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मन्दिर में रुका हुआ था। सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वे जागते रहे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे। उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। इस घटना का उनके मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा

यह देख कर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा कैसे करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।

अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया (19वीं सदी के भारत में यह आम प्रथा थी)।

लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वे 1846 में सत्य की खोज में निकल पड़े।

वेद, ईश्वर और धर्म पर दयानंद सरस्वती के विचार

स्वामी दयानन्द ने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। ‘वेदों की ओर लौटो’ यह उनका प्रमुख नारा था। उन्होंने वेदों का भाष्य किया इसलिए उन्हें ‘महर्षि’ भी कहा जाता है क्योंकि ‘ऋषयो मन्त्र दृष्टारः’ (वेदमन्त्रों के अर्थ का दृष्टा ऋषि होता है)।

स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे. उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया. उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है. इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।

उनका अगला कदम ईश्वर के प्रति पूर्ण-समर्पण के साथ हिंदू धर्म में सुधार करना था। उन्होंने अपने तर्कों, संस्कृत और वेदों के ज्ञान के बल पर देश भर के धार्मिक विद्वानों और पुजारियों को वेद, धर्म और ईश्वर पर चर्चा के लिए चुनौती देते हुए देश की यात्रा की और हर बार, बार बार जीत कर निकले।

22 अक्टूबर 1869 को वाराणसी में, उन्होंने 27 विद्वानों और 12 विशेषज्ञ पंडितों के खिलाफ एक बहस (debate) जीती। कहा जाता है कि इस बहस में 50,000 से अधिक लोगों ने भाग लिया था। इस बहस का मुख्य विषय था “क्या वेद मूर्ति-पूजा को प्रोत्साहित करते हैं?

उस समय पुजारियों ने सामान्य लोगों को वैदिक शास्त्रों को पढ़ने से हतोत्साहित किया। उन्होंने तथाकथित धार्मिक अनुष्ठानों, जैसे कि गंगा नदी में स्नान करना और वर्षगाँठ पर पुजारियों को खाना खिलाना आदि को बढ़ावा दिया। पुजारियों ने लोगों को स्वयं को धन, गौ-धन, वस्त्र, सोना आदि दान देने को प्रोत्साहित किया, जिसे दयानंद सरस्वती ने अंधविश्वास या आत्म-सेवा प्रथाओं के रूप मान कर नकार दिया

इस तरह की अंधविश्वासी धारणाओं को अस्वीकार करने के लिए राष्ट्र को प्रोत्साहित करके, उनका उद्देश्य राष्ट्र को वेदों की शिक्षाओं पर लौटने और वैदिक जीवन शैली का पालन करने के लिए शिक्षित करना था। उन्होंने हिंदुओं को राष्ट्रीय समृद्धि के लिए गायों के महत्व के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता के लिए राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी को अपनाने सहित सामाजिक सुधारों को स्वीकार करने का भी आह्वान किया।

धर्म और राष्ट्र के प्रति योगदान

अपने दैनिक जीवन और योग और आसनों, शिक्षाओं, उपदेशों, उपदेशों और लेखन के अभ्यास के माध्यम से, उन्होंने हिंदुओं को स्वराज्य (स्वशासन), राष्ट्रवाद और अध्यात्मवाद की आकांक्षा के लिए प्रेरित किया। उन्होंने महिलाओं के समान अधिकारों और सम्मान की वकालत की और लिंग की परवाह किए बिना सभी बच्चों की शिक्षा की वकालत की।

स्वामी दयानंद सरस्वती का मानना ​​​​था कि वेदों के मूलभूत सिद्धांतों के प्रति अज्ञानता और भटकाव के कारण हिंदू धर्म भ्रष्ट हो गया था और पुजारियों के द्वारा अपने निजी हित के कारण आम-जन को द्वारा गुमराह किया जा रहा था। इस शोषण और पथ-भ्रष्टता को रोकने के लिए, उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की, जिसमें दस सार्वभौमिक सिद्धांतों को सार्वभौमिकता के लिए एक कोड के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसे “कृण्वन्तो विश्वं आर्यं” कहा गया।

मूर्तिपूजा और कर्मकांडों की पूजा का खंडन करते हुए उन्होंने वैदिक विचारधाराओं को पुनर्जीवित करने की दिशा में काम किया। इसके बाद, भारत के दार्शनिक और राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन ने उन्हें “आधुनिक भारत के निर्माताओं” में से एक कहा, ठीक ऐसा ही श्री अरबिंदो ने भी कहा था।

उन्होंने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा सन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनाया। उन्होंने ही सबसे पहले 1876 में ‘स्वराज्य’ का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। प्रथम जनगणना के समय स्वामी जी ने आगरा से देश के सभी आर्य-सामाजियों को यह निर्देश भिजवाया कि सब सदस्य अपना धर्म “सनातन धर्म” लिखवाएं। उनका मत था कि ‘हिंदू’ शब्द विदेशियों की देन है और ‘फारसी भाषा’ में इसके अर्थ ‘चोर, डाकू’ इत्यादि लिखे गए हैं।

दयानंद सरस्वती – महान प्रेरणास्रोत

स्वामी दयानंद सरस्वती के तार्किक, ज्वलंत और क्रांतिकारी विचारों ने भारत के असंख्य मनुष्यों को प्रभावित और प्रेरित किया।  इनमें कई महापुरुषों के नाम भी शामिल है, जिनमें प्रमुख नाम हैं- मादाम भिकाजी कामा, शहीद भगत सिंह, पण्डित लेखराम आर्य, स्वामी श्रद्धानन्द, चौधरी छोटूराम पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, महादेव गोविंद रानाडे, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय इत्यादि।

स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में लाला हंसराज ने सन 1886 में लाहौर में ‘दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज’ की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानन्द जी ने 1901 में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना की।

स्वामी दयानंद आधुनिक भारत के निर्माताओं में सर्वोच्च स्थान पर हैं। उन्होंने देश की राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मुक्ति के लिए अथक प्रयास किया। हिंदू धर्म को वैदिक नींव पर वापस ले जाने के मिशन को उन्होंने तर्क द्वारा निर्देशित किया। उन्होंने समाज को सुधारने का प्रयास किया, जिसकी सख्त जरूरत थी और फिर से पड़ेगी। भारतीय संविधान में किए गए कुछ सुधार उनकी शिक्षाओं से प्रेरित थे
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन

महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, तार्किक और यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा करने की परवाह किये बिना आर्यावर्त (भारत) के हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।

दयानंद सरस्वती का साहित्य में योगदान

दयानंद सरस्वती ने 60 से अधिक रचनाएँ लिखीं, जिनमें छह वेदांगों की 16 खंडों की व्याख्या, अष्टाध्यायी (पाणिनी का व्याकरण) पर एक अधूरी टिप्पणी, नैतिकता और नैतिकता पर कई छोटे पथ, वैदिक अनुष्ठान और संस्कार, और विश्लेषण पर एक अंश शामिल हैं। उनके कुछ प्रमुख कार्यों में सत्यार्थ प्रकाश, सत्यार्थ भूमिका, संस्कारविधि, ऋग्वेददी भाष्य भूमिका, ऋग्वेद भाष्य (7/61/2 तक) और यजुर्वेद भाष्यम शामिल हैं। भारतीय शहर अजमेर में स्थित परोपकारिणी सभा की स्थापना सरस्वती ने अपने कार्यों और वैदिक ग्रंथों को प्रकाशित करने और प्रचार करने के लिए की थी।

नारी सशक्तिकरण में योगदान

दयानंद के कई सारे बहुमूल्य योगदानों में एक महिलाओं के लिए समान अधिकारों को बढ़ावा देना, जैसे कि शिक्षा का अधिकार और भारतीय शास्त्रों को पढ़ने का अधिकार शामिल था। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को भी प्रोत्साहित किया।

स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु

सन 1883 में, जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने स्वामी जी को अपने महल में आमंत्रित किया। महाराजा दयानंद के शिष्य बनने और उनकी शिक्षाओं को सीखने के लिए उत्सुक थे। दयानंद अपने प्रवास के दौरान महाराजा के विश्राम कक्ष में गए और उन्हें नन्ही-जान नाम की एक नृत्यांगना लड़की के साथ देखा। दयानंद ने महाराजा से कहा कि वह लड़की और सभी अनैतिक कार्यों को त्याग दें और एक सच्चे आर्य (महान) की तरह धर्म का पालन करें। दयानंद के सुझाव ने नन्ही को नाराज कर दिया, और उसने बदला लेने का फैसला किया।

29 सितंबर 1883 को, उसने दयानंद के रसोइए जगन्नाथ को रात के दूध में कांच के छोटे टुकड़े मिलाने के लिए रिश्वत दी।  दयानंद को सोने से पहले गिलास से भरा दूध परोसा गया, जिसे उन्होंने तुरंत पी लिया। वह कई दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहे और असहनीय दर्द सहते रहे। महाराजा ने तुरंत उसके लिए डॉक्टर की सेवाओं की व्यवस्था की। हालांकि, जब तक डॉक्टर पहुंचे, तब तक उनकी हालत खराब हो चुकी थी, और उन्हें बड़े रक्तस्रावी घाव हो गए थे।

दयानंद की पीड़ा को देखकर, जगन्नाथ अपराध बोध से भर गया और उन्होंने दयानंद के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। अपनी मृत्युशय्या पर पड़े दयानन्द ने उसे क्षमा कर दिया और उसे 500 रुपये दिए और कहा कि महाराजा के आदमियों द्वारा उसे खोजे जाने और मार डालने से पहले वह नेपाल भाग जाए। ऐसे दया की मूर्ति थें हमारे स्वामी दयानद!

वेदों पर संस्कृत के साथ-साथ हिंदी में उनका साहित्य, सनातन धर्म की रक्षा का उनका संकल्प, अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों पर उनके प्रहार, महिला कल्याण, स्वराज की प्रेरणा और भारत के जनमानस की भलाई के लिए उनका योगदान अमूल्य है। देश उनके दिखाए दया, धर्म, शांति और समृद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित होता रहेगा, ऐसी आशा और कामना है।

आगे पढ़ें:

सत्यार्थप्रकाश – अंधविश्वास, पाखण्ड और सामाजिक कुरीतिओं पर चोट करते तथ्य जो आपने कहीं नहीं पढ़े होंगे

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