प्यार को हमेशा ही दिमाग से नहीं, दिल से जोड़कर देखा जाता रहा है. पर सच्चाई तो यह है की किसी से अचानक प्यार हो जाना और किसी को दिलों जान से चाहने लग्ने में हमारे दिल की कोई ख़ास भूमिका नहीं होती और न ही ये सब कुछ अपने आप होता है. यह तो हमारे दिमाग में होने वाली कुछ रासायनिक क्रियाएँ तथा जीन सम्बन्धी संरचनाएं एंव विशेषताएं ही प्यार हो जाने का प्रमुख कारण होता है और इन्ही की बदौलत प्यार और उसकी गहराई तय होती है.
मनिवैज्ञानिक मानते है कि वास्तव में प्यार एक मनिविज्ञान है, जिसे समझ पाना हर किसी के लिए संभव नहीं. सच्चाई तो यह हैं की एक दुसरे की तरफ आकर्षित होना एक रासायनिक प्रक्रिया है, जिसमे दुसरे की आवाज़, गंध, और उसके हाव भाव अच्छे लगते है और मन में यह भाव उत्पन हो जाता है कि वाही व्यक्ति उसके लिए सबसे बेहतर है. हर किसी के लिए हमारी भावना ऐसी नहीं होती और इसका कारण यही है की रसायन ही हमें किसी व्यक्ति को आत्मसात करने के लिए तैयार करते है और हम उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते है. मनोवैज्ञानिक मानते है कि दो लोगों के बीच रासायनिक मेल होने से ही आनंद की अनुभूति, हृदयगति का बढना इत्यादि मस्तिष्क के प्रेम रसायनों कास्न्नव तेज़ होना जैसी जैविक क्रियाएँ होती है.
यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ लंदन का कहना है कि प्यार”खींचो और धकेलो” की पद्धति पर काम करता है. जब किसी से प्रेम होता है तो व्यक्ति उसकी तरफ खिंचा चला जाता है और उससे जुडी हर बुराई को इग्नोर करता जाता है. प्यार में बुराई के बुराई को नज़र अंदाज़ करना आँखें मूंदना जैसा है, तभी कहा जाता है कि प्यार अंधा होता है.
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने यह दावा भी किया है कि प्यार की अलग-अलग तरह की कुल ६ किस्मे होती है. इनमे से पहले तरह के प्यार को वैज्ञानिकों ने “रोस” नाम दिया है, जिसमे केवल शारीरिक रिश्ते बनते है, ऐसे प्यार में शादी का कोई अस्तित्व नै होता. प्यार की दूसरी क़िस्म को “ल्यूड्स” नाम दिया है, जिसमे दोस्ती प्यार में बदलने लगती है, लेकिन इसमें गंभीरता का अभाव पाया जाता है. तीसरे तरह के प्यार “अगापे” में प्रेमियों के बीच अटूट प्रेम होता है और उनमें एक दुसरे पर मर मिटने तथा एक दुसरे के लिए बलिदान देने के लिए तत्पर रहने की भावना जन्म ले चुकी होती है. अगली किस्म का प्यार है “मेनियक” , इसमें प्रेमी इस कदर एक दुसरे को चाहने लगते है कि वह अपने प्यार को हासिल न कर पाने की स्थिति में जान देने अथवा जान लेने के लिए भी तत्पर रहते है. प्यार की एक अन्य किस्म “प्रेगमा” में प्रेमी भावनाओं के समंदर न बहकर पहले अच्छे से एक दुसरे के बारे में जानकारी हासिल करते है और उसके बाद ही प्यार करने जैसे कदम उठाते है. वैसे भी जांचा परखा प्यार ही पूरी तरह से सफल प्यार की श्रेणी में आता है.
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मस्तिष्क में स्थित एक अंग “हाइपोथेलेमस” में जब “डोपेमाइन” तथा “नोरपाइनफेरिन” नामक दो न्यूरोट्रांसमीटरों की अधिक मात्रा हो जाती है तो यह शरीर में उत्तेजना व् उमंग पैदा करने लगती है. ये न्यूरोट्रांसमीटर मस्तिष्क में उस समय सक्रिय होते है, जब दो विपरीत लिंगी मिलते है. कभी कभी समलिंगियों के मामले में भी ऐसा ही देखा जाता है. जब भी इन्हें एक दुसरे की कोई बात आकर्षित करती है तो उनके मस्तिष्क का यह हिस्सा अचानक सक्रिय हो उठता है. जब मस्तिष्क के इस हिस्से की सक्रियता के कारण “डोपेमाइन” नामक इस रसायन का स्तर बढता है तो यह मस्तिष्क में आनंद, गर्व, उर्जा तथा प्रेरणा के भाव उत्पन्न करता है. डोपेमाइन के कारण ही एक अन्य रसायन “आक्सीटोक्सिन” का सत्राव भी बढता है, जो दुसरे साथी को बांहों में भरने और दुलारने की प्रेरणा देता है जबकि “नोरपाइनफेरिन” के कारण “एडरिनेलिन” रसायन का स्त्राव बढता है, जो दिल की धडकनें तेज़ करने के लिए उतरदायी होता है. “वेसोप्रेसिन” रसायन आपसी लगाव बड़ाने तथा अटूट बंधन के लिए होता है.
न्युयोर्क की एक जानी मानी समाजशास्त्री डॉ. हेलन फिशर इस सिलसिले में बहुत लंबा शोध कार्य कर चुकी है. उनका भी यही मानना है कि मस्तिष्क में पाए जाने वाले रसायनों “डोपेमाइन” तथा “नोरपाइनफेरिन” से ही प्यार की भावना का सीधा संबंध है. इन्ही कारणों से प्रेमियों में असाधारण उर्जा का विस्फोट होता है और प्यार करने वालों की नींद और भूख गायब होने की भी यही प्रमुख वजह है. जहाँ दोपेमाइन रसायन हमें उत्तेजित करता है, वहीँ ये दोनों रसायन हमें शांत करके लगाव विकसित करते है. इसी प्रकार “सेरोटोनिन” नामक एक अन्य रसायन अथवा न्यूरोट्रांसमीटर अस्थायी प्यार के लिये ज़िम्मेदार होता है जबकि “इन्दोर्फिन” नामक रसायन सच्चे, स्थायी और समर्पित प्यार का आधार है.
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