हर्ष और उल्लास लोहड़ी का पर्व है। इसका मौसम के साथ गहरा संबंध है। पौष माह की कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए अग्नि की तपिश का सुकून लेने के लिए लोहड़ी मनाई जाती है।
लोहड़ी रिश्तों की मधुरता, सुकून और प्रेम का प्रतीक है। दुखों के नाश, प्यार और भाईचारे से मिलजुल कर नफरत के बीज नाश करने का नाम है लोहड़ी। यह पवित्र अग्नि-पर्व मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रूठों को मनाने का जरिया बनता रहेगा।
लोहड़ी शब्द तिल-रोड़ी के मेल से बना है जो समय के साथ बदल कर तिलोड़ी और बाद में लोहड़ी हो गया। लोहड़ी मुख्यतः तीन शब्दों को जोड़कर बना हैल (लकड़ी) ओह (सूखे उपले) और डी (रेवड़ी)।
लोहड़ी के पर्व की दस्तक के साथ ही पहले ‘सुंदर-मुंदरिए’, ‘दे माई लोहड़ी जीवे तेरी जोड़ी‘ आदि लोकगीत गाकर घर-घर लोहड़ी मांगने का रिवाज था।
समय बदलने के साथ कई पुरानी रस्मों का आधुनिकीकरण हो गया है। लोहड़ी पर भी इसका प्रभाव पड़ा। अब गांवों में लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए परम्परागत गीत गाते दिखाई नहीं देते। गीतों का स्थान ‘डीजे‘ ने ले लिया है।
लोहड़ी की रात को गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और अगले दिन माघी के दिन खाई जाती है जिसके लिए पौह रिद्धि माघ खाधी गई’ कहा जाता है। ऐसा करना शुभ माना जाता है।
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यह त्यौहार छोटे बच्चों एवं नवविवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है। लोहड़ी की शाम जलती लकड़ियों के सामने नव विवाहित जोड़े अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाए रखने की कामना करते हैं।
लोहड़ी की पवित्र आग में तिल डालने के बाद बड़े बुजुगों से आशीर्वाद लिया जाता है। इस पर्व का संबंध अनेक ऐतिहासिक कहानियों से जोड़ा जाता है पर इससे जुड़ी प्रमुख लोक कथा दुल्ला भट्टी की है। वह मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था जिसने मुगलों के बढ़ते अत्याचार के विरुद्ध कदम उठाया।
कहा जाता है कि एक ब्राह्मण की दो लड़कियां सुंदरी और मुंदरी के साथ इलाके का मुगल शासक जबरन शादी करना चाहता था पर उनकी सगाई कहीं और हुई थी और मुगल शासक के डर से उन लड़कियों के ससुराल वाले शादी के लिए तैयार नहीं हो रहे थे।
मुसीवत की घड़ी में दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की मदद की और लड़के वालों को मनाकर एकजंगल में आग जलाकर सुंदरी और मुंदरी का विवाह करवा के स्वयं उनका कन्यादान किया।
कहावत है कि दुल्ले ने शगुन के रूप में उन दोनों को शक्कर दी। इसी कथनी की हिमायत करता लोहड़ी का यह गीत है जिसे लोहड़ी के दिन गाया जाता है:
‘सुंदर-मुंदरिए हो, तेरा कौन बेचारा हो।
दुल्ला भट्टी वाला,हो, दुल्ले ने धी ब्याही हो।
सेर शक्कर पाई,हो-कुड़ी दा लाल पटाका हो।
कुड़ी दा सालू पाटा हो-सालू कौन समेटे हो।
चाचा चूरी कुट्टी हो, जमींदारा लुट्टी हो।’
जमींदार सुधाए, हो, बड़े पोले आए हो।
इक पोला रह गया, सिपाही फड़ के लै गया।
‘सिपाही ने मारी इट्ट, भावें रो भावें पिट्ट,
सानूं दे दओ लोहड़ी, जीवे तेरी जोड़ी।
साडे पैरां हेठरोड़, सूानं छेती-छेती तोर,
साडे पैरां हेठ परात, सानूं उत्तों पै गई रात
दे मई लोहड़ी, जीवे तेरी जोड़ी।’
दुल्ल-भट्टी द्वारा मानवता की सेवा को आज भी लोग याद करते हैं तथा लोहड़ी का पर्व अत्याचार पर साहस और सत्य की विजय के पर्व के रूप में मनाते हैं। इस त्यौहार का संबंध फसल के साथ भी है। इस समय पर गेहूं और सरसों की फसलें अपने यौवन पर होती हैं।
लोहड़ी का संबंध नए जन्मे बच्चों के साथ ज्यादा है। यह रीत चली आई है कि जिस घर में लड़का जन्म लेता है वहां धूमधाम से लोहड़ी मनाई जाती है।
आजकल लोग कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए लड़कियों के जन्म पर भी लोहड़ी मनाते हैं ताकि रुढ़िवादी लोगों में लड़के-लड़की का अंतर खत्म किया जा सके।
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