Wednesday, March 27, 2024
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सुपरहिट चुनावी नारे, जिन्होंने बदल दी सरकारें

चुनाव लोकतंत्र की सबसे प्रमुख व्यवस्था है। चुनाव के जरिये जनता अपने प्रतिनिधि चुनते हैं जो बदले में उनकी बात देश की प्रधान इकाई यानि ससंद तक पहुंचाते हैं। ससंद तक पहुँचने के लिए चुनावी उम्मीदवार हर संभव तरीके अपनाते हैं।

हर चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दल चुनावी घोषणापत्र बनाते हैं जिसमें वे जनता के सामने अपनी कार्ययोजना को सार्वजनिक करते हैं। साथ ही वर्तमान व्यवस्था के मद्देनजर कुछ चुनावी नारों का सृजन होता है। ऐसे नारे जो एक तरफ तो आकर्षक हों दूसरे उनमें जनता से संबन्धित समस्याओं को लोक लुभावन तरीके से पेश करने का प्रयास किया जाता है ताकि ऐसा लगे कि आम जन की ही आवाज उन नारों से उठती नज़र आए।

देश के पिछले आम चुनाव में जहां भाजपा की और से ‘अब की बार फिर मोदी सरकार’ का नारा बुलंद किया था जबकि कांग्रेस और समर्थक दल ‘चौकीदार चोर है’ के नारे के साथ मैदान उतरे। हालांकि कांग्रेस का नारा फुस्स साबित हुआ और बीजेपी ने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई।

इस लेख में हम कुछ ऐसे ही चुनावी नारों की लिस्ट लेकर आए हैं जिन्होंने सरकारों को बनाने और बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1967 के चुनाव में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बैलों की जोड़ी बनाया गया। कांग्रेस का नारा था:

“भूल ना जाना भारत वालो किसी की होड़ा होड़ी में
देखभाल कर मोहर लगाना दो बैलों की जोड़ी पै”

इसके जबाव में जनसंघ (आज की बीजेपी) ने नारा दिया,

देखो दीए का खेल, जली झोंपड़ी, भागे बैल।

गौरतलब है कि तब जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीयाबाती था।

इस पर कांग्रेस ने नए नारे के साथ जवाबी हमला बोला। नारा था:

इस दिए में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं।

लेकिन चुनावी नारों की असली धमाल इंदिरा गांधी के शासनकाल में शुरू हुई। 1971 में कांग्रेस ने नारा दिया:

गरीबी हटाओ, इंदिरा लाओ।

अगले चुनाव में यह नारा विपक्ष ने यूं बदल दिया:

इंदिरा हटाओ, देश बचाओ

1975 की इमरजेंसी ने तो कई चुनावी नारों को जन्म दिया। उस दौर में एक नारा बड़ा मशहूर हुआ था:

जमीन गई चकबंदी में, मर्द गए नसबंदी में, नसबंदी के तीन दलाल- इंदिरा, संजय, बंसीलाल।

कांग्रेस के खिलाफ उस चुनाव में नारों की बाढ़ आ गई थी।

संजय की मम्मी, बड़ी निक्कमी, बेटा कार बनाता है, मम्मी बेकार बनाती है।

इन्हीं नारों की बदौलत विपक्ष ने आपातकाल की टीस को खूब कुरेदा और नतीज़ा यह हुआ कि इंदिरा गांधी और कांग्रेस बुरी तरह चुनाव हार गए।

बाद में 1980 में आते-आते जनसंघ, बी.जे.पी. में बदल गया और दीयाबाती कमल के फूल में।

उधर कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय बछड़ा भी हाथ बन गया। लेकिन उस चुनाव का सबसे दिलचस्प नारा वामपंथियों ने दिया था:

चलेगा मज़दूर उड़ेगी धूल, न बचेगा हाथ न रहेगा फूल।

लेकिन अंतत श्रीकांत वर्मा के लिखे: इस नारे ने बाज़ी मारी:

न जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’

अगला चुनाव आते-आते इंदिरा की हत्या हो चुकी थी। कांग्रेस के इस नारे ने पार्टी को अकूत बहुमत दिलाया।

‘जब तक सूरज चांद रहेगा इंदिरा तेरा नाम रहेगा’

नारों की सियासत में क्षेत्रीय दल भी पीछे नहीं हैं। किसी जमाने में बिहार में ऊंची जातियों के खिलाफ लालू प्रसाद यादव का नारा:

भूरा बाल साफ करो, जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब रहेगा बिहार में लालू।

उधर सपा के खिलाफ बसपा ने नारा दिया था,

ढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर

बसपा ने ही एक समय यूपी में नारा दिया था,

तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।

जब सपा और बसपा ने मिलकर बीजेपी को हराया था, उस चुनाव में नारा था,

मिले मुलायम और कांशीराम, हवा में उड़ेगा जय श्री राम।

पंजाब में पिछले चुनाव का बड़ा नारा था- कैप्टन ने सौं चक्की, हर घर इक नौकरी पक्की

एम.पी. में कांग्रेस का नारा था-

कर्जा माफ, बिजली हाफ, करो कांग्रेस साफ।

जब चला वी.पी. का चक्र

1989 में चुनाव में कांग्रेस सत्ताच्युत हुई और वी.पी. सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। उस दौर का चर्चित नारा था:

राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।

यह दीगर बात है कि 1990 में मंडल आयोग आंदोलन ने वी पी.सिंह की तकदीर को बतौर पी.एम. ग्रहण लगा दिया। उनके लिए तब नारा लगा था-::

गोली मारो मंडल को, इस राजा को कमंडल दो।

उसके बाद के चुनाव का सबसे चर्चित नारा बी.जे.पी. ने दिया था- सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे। फिर बी.जे.पी. का नया नारा आया

अटल, अडवानी कमल निशान, मांग रहा हिंदुस्तान।

उसी चुनाव में यह भी आया:

सबको देखा बारी-बारी, अबकी बारी, अटल बिहारी।

फिर उसके बाद के चुनाव में कोई ऐसा नारा नहीं आया, जो हर किसी की जुबां पर रहा हो।

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