हिन्दू धर्म में महाभारत को पांचवा वेद माना जाता है. माना जाता है कि इस महाकाव्य में व्यक्ति, परिवार, समाज, धर्म, कर्म, माया, ईश्वर, देवता, राजनीति, कूटनीति, महासंग्राम, महाविनाश, ज्ञान-विज्ञान, तंत्र-साधना, भक्त-भगवान और न जाने कितने अनेकोनेक विषयों के बारे में विस्तृत वर्णन किया गया है. महाभारत में वर्णित श्रीभगवत गीता ईश्वर, आत्मा, कर्म और योग के विवेचन का एक ऐसा विश्व-कोष है जिसके स्तर का ग्रन्थ अन्यंत्र मिलना दुर्लभ है.
लगभग हर हिंदू व्यक्ति महाभारत की कथा और गाथा के बारे में जानता है. लेकिन महाभारत के कुछ ऐसे दिलचस्प तथ्य हैं जो केवल महाभारत के बारे में गहन रुचि और अध्ययन करने वाले व्यक्ति को ही पता हैं और हम-आप साधारण जन के लिए जान पाना लगभग असंभव ही है. कुछ ऐसे ही खास तथ्य हमें इंटरनेट के माध्यम से पता चले और हमने आपके लिए उनको यहाँ पर संकलित और प्रस्तुत किया है.
तो आइए शुरू करते हैं कौरव-पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के जन्म से सम्बंधित प्रसंग से.
द्रोणाचार्य का जन्म
कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोण महऋषि भरद्वाज के पुत्र थे. महर्षि भरद्वाज एक महान वैज्ञानिक, चिकित्सक, तत्व-वेता और प्रकांड विद्वान थें. एक बार महर्षि भरद्वाज अपनी दिनचर्या के अनुसार गंगा नदी में स्नान के लिए जा रहे थे. उसी समय घृताची नामक अप्सरा केवल एक पारदर्शी वस्त्र में गंगा जी में स्नान कर रही थी. अप्रितम सुंदर और कमनीय अप्सरा को देखकर महऋषि भरद्वाज उत्तेजित हो गये और उनका अवांछित वीर्यपात हो गया.
उस समय में वीर्य को केवल नए जीवन के बीज के रूप में ही बाहर निकालने की परंपरा थी. दूसरे, वर्षों की कड़ी तपस्या और सयंम से पुरुष का वीर्य एक अति-तेजस्वी और बलशाली संतान को सक्षम देने में समर्थ था, महऋषि ने इस वीर्य को व्यर्थ जाने देना उचित नहीं समझा और उसे पीपल के पत्ते की सहायता से एक द्रोणा यानि कलश में कुछ अन्य उपाय करके स्थापित कर दिया. समय आने पर इससे तेजस्वी और महान धनुर्धर गुरु द्रोणाचार्य का जन्म हुआ. अत: द्रोणाचार्य पहले ज्ञात टेस्ट ट्यूब बेबी थे.
एकलव्य का धृष्टदयुम्न के रूप में पुनर्जन्म
द्रौपदी के साथ उनके भाई धृष्टदयुम्न का भी जन्म हुआ था. माना जाता है कि धृष्टदयुम्न पूर्वजन्म के एकलव्य थे. गुरु द्रोण ने उनकी तीरंदाजी के महाकौशल को देखते हुए उन्हें राज-परंपरा के लिए एक खतरा समझा और उनसे गुरुदक्षिणा में उनका अंगूठा मांग लिया था. एकलव्य ने बायें हाथ से धनुष चलाना सीख लिया था.
रुक्मिणी के हरण के समय श्रीकृष्ण के हाथों से एकलव्य मारा गया. उस समय श्रीकृष्ण ने एकलव्य को अगले जन्म में द्रोणाचार्य के वध के लिए जन्म लेने का वरदान दिया था. इस तरह एकलव्य ने पुनर्जन्म लेकर द्रोणाचार्य का वध किया था. यह शरीर बदल कर कार्य करने के सिद्धांत का एक अन्य उदाहरण था.
केवल अर्जुन ने ही श्रीकृष्ण के विश्वरूप को नहीं देखा था
युद्ध के शुरू होने से पहले ही शत्रु सेना में अपने सगे-सम्बन्धियों को देख कर अर्जुन के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया. अर्जुन को पलायन करता देख श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता के रूप उपदेश दिया और उन्हें अपने विराट विश्वरूप के दर्शन कराये जिससे अर्जुन का मन मोह-माया को त्याग कर युद्ध के लिए तत्पर हुआ. ऐसा माना जाता है कि यह उपदेश और दर्शन अर्जुन को ही प्राप्त हुआ लेकिन दो अन्य लोग भी थे जिन्होंने यह उपदेश भी सुना और भगवान के विश्व-रूप के दर्शन भी किये.
संजय ने दिव्य दृष्टि के कारण देखा और सुना
संजय महाभारत के एक महत्वपूर्ण पात्र थे. वे कौरव राजा धृतराष्ट्र के सारथी थे. महाभारत युद्ध के शुरू होने पर धृतराष्ट्र ने युद्ध देखने का आग्रह किया. चूंकि धृतराष्ट्र अंधे थे इसलिए महर्षि वेदव्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की ताकि वे सारा वृत्तांत धृतराष्ट्र को ‘लाइव’ सुना सकें. इसी कारण संजय ने भी दिव्य दृष्टि से कृष्ण के विश्वरूप को देखा था.
श्री हनुमान ने भी देखा-सुना है क्योंकि वे अर्जुन के रथ पर विराजमान थे
पवन-पुत्र हनुमान, अर्जुन के रथ पर ध्वजा पर विराजमान थे. इसलिए रणभूमि में जो कुछ भी घटित हुआ वह सब कुछ उन्होंने देखा और सुना.
अर्जुन किन्नर के रूप में
एक दिन जब स्वर्ग में गन्धर्व चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे, वहाँ अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई. उर्वशी ने अर्जुन के सामने विवाह करने का प्रस्ताव रखा लेकिन अर्जुन ने इसे विनम्रता से ठुकरा दिया. क्योकिं वह इंद्र की पत्नी थी और चूंकि अर्जुन इंद्र के अंश-पुत्र थे इसलिए उनके लिए उर्वशी माता के समान थी.
अर्जुन द्वारा ठुकराए जाने पर उर्वशी क्रोधित हो गईं और उसने अर्जुन को एक वर्ष तक नपुंसक या हिजड़ा बनने का शाप दे दिया. यह श्राप अज्ञात-वास के दौरान उनके काम आया जब वे बृहन्नला नाम से विराट नगर में अपनी होने वाली पुत्रवधू उत्तरा की संगीत और नृत्य की शिक्षिका के रूप में कार्यरत रहे.
भीष्म के पांच ‘पांडव विनाशक’ तीर
युद्ध के दौरान, दुर्योधन ने भीष्म पितामह पर पांडवों के प्रति नरम रवैया अपनाने का आरोप लगाया. इस आरोप से भीष्म क्षुब्ध हो गये और उन्होंने अपने तरकश से पांच तीर निकाले, उन पर कुछ मंत्र फूंके और दुर्योधन को वचन दिया कि इन पांच तीरों से वे अगले दिन पांडवों का वध करेंगे. दुर्योधन इससे संतुष्ट नहीं हुआ और उसने इन तीरों को अपने कब्जे में ले लिया.
श्रीकृष्ण की सलाह पर अर्जुन ने दुर्योधन से ये पांच तीर दुर्योधन द्वारा अर्जुन को दिए एक वरदान के बदले में मांग लिए.
श्रीकृष्ण हुए शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को तोड़ने के लिए विवश
युद्ध से पहले, भगवान श्रीकृष्ण ने प्रण किया था कि वह इस युद्ध में हथियार नहीं उठाएँगे. वहीँ महायोद्धा भीष्म ने भी प्रण किया था कि वह या तो श्रीकृष्ण को हथियार उठाने पर मजबूर कर देंगे या पांडवों का वध कर देंगे. युद्ध के दौरान, भीष्म पांडवों की सेना को बुरी तरह कुचल रहे थे और अर्जुन भी उन्हें रोक नहीं पा रहे थे.
कोई चारा न देख अंत्यंत क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने भीष्म पितामह को मारने के लिए रथ के पहिए को उठा कर दौड़ पड़े. अर्जुन ने उन्हें भक्त और सखा होने का वास्ता देकर रोक लिया ताकि श्रीकृष्ण के प्रण की मर्यादा बनी रहे.
जब अर्जुन युधिष्ठिर को मारने के लिए उतारू हुए
सूतपुत्र कर्ण पांडव सैनिकों का भयानक संहार कर रहा था. इसी दौरान कर्ण ने युधिष्ठिर पर एक ज़ोरदार वार किया और वे बुरी तरह घायल हो गये. नकुल तथा सहदेव ने भ्राता युधिष्ठिर की यह हालत देखी तो शीघ्र ही वे उन्हें शिविर में ले गए.
युधिष्ठिर ने जब अर्जुन आते देखा तो वह बहुत खुश हुए. उन्हें अति-विश्वास था कि अर्जुन ने अपने भ्राता को घायल करने के बदले में कर्ण को अवश्य ही मार डाला होगा. लेकिन जब पता चला कि कर्ण जीवित है तो युधिष्ठिर बहुत क्रोधित हुए. युधिष्ठिर ने क्रोध में आकर अर्जुन गांडीव को त्याग देने को कह क्योंकि वह अपने भाई की रक्षा और प्रतिशोध नहीं ले पाने के कारण इसके लायक नहीं रहे थे.
दूसरी और, बहुत पहले ही, अर्जुन ने प्रण कर रखा था कि जो भी उन्हें गांडीव को त्यागने को कहेगा वे उसे मार डालेंगे. अब उन्हें इस दुविधा में पाकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को किसी ऐसे व्यक्ति का अनादर करने की सलाह दी जिसका वे पहले आदर करते रहे हों. इस तरह से अर्जुन ने जीवन में पहली बार भ्राता युधिष्ठर का अनादर किया.
दरअसल, किसी का अनादर करना भी कुछ समय के लिए उस व्यक्ति को नजरों में खो देने या क्षणिक मार डालने के समान समझा गया है. इस तरह से त्रिकाल-दर्शी भगवान श्रीकृष्ण की सूझबूझ से पांडवों का एक बड़ा संकट टल गया.
(यह पोस्ट Quora पर महाभारत के विषय में किये गये एक प्रश्न के एक उत्तर का हिंदी अनुवाद है. मैं Fundabook टीम की ओर से Quora और उत्तर के लेखक Aditya Anshul का आभार व्यक्त करता हूँ.)
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