भारत की राजधानी दिल्ली का बहुत ही अद्भुत और गौरवशाली इतिहास रहा है। दिल्ली के संदर्भ में कहा जाता है कि यह नगर 7 बार उजड़ा है और 7 बार बसा है फिर भी आज दिल्ली अपने समृद्ध इतिहास से सम्पन्न है।
शहर की बड़ी-बड़ी इमारतों के बीच में आप गर्व से इठलाती प्राचीन व मध्यकालीन इमारतों को आराम से देख सकते हैं जिन्हें भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने आने वाली पीढ़ियों के लिए संजो कर रखा है।
कई इमारतें ऐसी भी हैं जिनके आज केवल अवशेष देखने को मिलते हैं परंतु इन्हें भी संरक्षित रखा गया है। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने दिल्ली शहर में 1200 धरोहर स्थल घोषित किए हैं जोकि विश्व के किसी भी अन्य शहर की तुलना में कहीं ज्यादा हैं।
इन्हीं धरोहरों में से एक है ‘अग्रसेन की बावड़ी’। दिल्ली के दिल में स्थित यह बावली मशहूर पर्यटन स्थल तो है ही परंतु यह प्राचीन भारतीय वर्षा जल संरक्षण परम्परा का भी अप्रतिम उदाहरण है।
माना जाता है कि इस बावड़ी का निर्माण महाभारत काल में करवाया गया था परंतु इसके पुनः जीर्णोद्धार का कार्य महाराजा अग्रसेन द्वारा 14वीं शताब्दी में करवाया गया।
यह बावड़ी इस बात को सिद्ध करती है कि प्राचीन भारत तकनीकी रूप से सशक्त था और उस समय के लोग यह भी समझते थे कि हम बारिश के पानी को ऐसे ही बहने नहीं दे सकते, इसे संरक्षित करने के लिए इन बावड़ियों का निर्माण किया गया।
ये बावड़ियां एक जमाने में पेयजल का मुख्य स्रोत हुआ करती थीं। घर के नल में आसानी से जल उपलब्ध होने से यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि हम अपनी इन अनमोल धरोहरों को नगण्य रूप में देखें।
ये बावड़ियां जल संकट के इस युग में भी हमें इतिहास से परिचित कराते हुए जल संरक्षण के प्रति जागरूक होने की प्रेरणा देती हैं।
प्रत्येक नागरिक को अपने इस इतिहास पर गौरवान्वित होना चाहिए और इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाते हुए वर्षा जल संरक्षण की पद्धति को अपनाना चाहिए।
युवाओं के आकर्षण का केंद्र
यह बावड़ी अपने ऊपरी तल पर 60 मीटर लम्बी व भूतल पर 15 मीटर चौड़ी है। इस बावली में कुल 105 सीढ़ियां हैं जिनकी सहायता से नीचे के जल तक आसानी से पहुंचा जा सकता है।
इस बावड़ी के निर्माण में लाल बलुए पत्थर का प्रयोग किया गया है तथा इसकी स्थापत्य शैली उत्तरकालीन तुगलक व लोदी काल से मेल खाती है। कनॉट प्लेस के हैली रोड पर स्थित यह बावली खास तौर पर युवाओं के लिए आकर्षण का केंद्र है।
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